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बॉलीवुड के खिलाफ अभी जैसी नफरत, पहले कभी नहीं देखी; इंडस्ट्री को ढाल बनाकर लोगों का ध्यान भटकाया जा रहा है, यह खतरनाक है

हिन्दी फिल्मों से भी पहले, मुझे असल में हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री से प्यार हुआ था। 1989 में कॉलेज से निकलते ही मेरी पहली नौकरी लगी फिल्म मैगजीन ‘मूवी’ में, जो बंद हो चुकी है। तब मुझे फिल्मों से कुछ खास लगाव नहीं था। लेकिन कुछ ही महीनों में मेरे जीवन का उद्देश्य मिल गया। हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री से मुझे इश्क हो गया।

यहां लोगों का व्यक्तित्व भव्य है और वातावरण इतना अनऔपचारिक कि इंटरव्यू के बहाने आप फिल्म स्टार्स के साथ घंटों गपशप कर सकते हैं। इंडस्ट्री के लिए प्रेम धीरे-धीरे फिल्मों के जुनून में बदल गया। उसी दौरान फिल्म इंडस्ट्री का बॉलीवुड में रूपांतरण हुआ। जो पहले एक ‘अंदर का धंधा’ हुआ करता था, वो अब एक वैध उद्योग बन गया।

इस 25 साल की अवधि में बॉलीवुड को वो ओहदा मिल गया, जिसे न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की एंथ्रोपोलोजिस्ट डॉ. तेजस्विनी गंटी, ‘सांस्कृतिक वैध्यता’ कहती हैं। यानी समाज के उन वर्गों की स्वीकृति जो बॉलीवुड के समर्थक नहीं थे। बॉलीवुड जो एक जमाने में पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने-गाने वाला, गरीब देश का सिनेमा माना जाता था, अब पूरी दुनिया में निराले आर्ट फॉर्म की तरह लोकप्रिय हो चुका है।

बॉलीवुड अपने आप में एक संस्कृति है, धर्म है। फिल्मों ने हमारे सपनों और महत्वाकांक्षाओं को नए आकार और नए आयाम दिए। दूसरों का तो पता नहीं, पर मेरे लिए यदि हिन्दी फिल्में नहीं होतीं, जीवन यकीनन इस उल्लास और इस जादू से वंचित रहता। और सोचिए, मैं ये सब कह रही हूं, जबकि मेरा काम तो है समीक्षा करना। लगभग 30 वर्षों से मैं बॉलीवुड की कमियों को निरंतर उजागर करती रही हूं।

अनेकों समस्याएं हैं। यहां ड्रग्स, पक्षपात, भाई भतीजावाद, व्यभिचार, लालच, घमंड सब कुछ व्यापक रूप से फैला है। ये सच हो सकता है। पर ये उतना ही सच होगा, जितना बाकी सारे क्षेत्रों के लिए है। लेकिन जबसे सुशांत सिंह राजपूत का दुर्भाग्यपूर्ण निधन हुआ है, बॉलीवुड पर तो जैसे चारों तरफ से घेराबंदी कर दी गई है। जिस प्रकार के आधारहीन और भ्रामक वार किए जा रहे हैं, उनका मकसद फिल्म इंडस्ट्री को कलंकित करना ही है।

मैंने इंडस्ट्री को पहले भी बुरे समय से गुजरते देखा है। खासतौर से 90 के दशक से 2000 के शुरुआती सालों में, अंडरवर्ल्ड का प्रकोप रहा। लेकिन जैसी नफरत और घृणा अभी फैली है, मैंने पहले कभी नहीं देखी। ये हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री पिछले 100 वर्षों में हजारों और लाखों लोगों के आंसू, खून, पसीने, महत्वाकांक्षाओं और सपनों से बनी है। डेलॉएट-एमपीए की मई में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत की एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री देश की अर्थव्यवस्था में 3.49 लाख करोड़ का योगदान देती है और 26 लाख लोगों को प्रत्यक्ष-अप्रत्क्ष रूप से रोजगार देती है।

प्रोड्यूसर्स गिल्ड के सीईओ नितिन तेज आहूजा कहते हैं, ‘इन आंकड़ों में वो तो शामिल ही नहीं हैं, जो ग्वालियर का नाई कार्तिक आर्यन की स्टाइल में बाल काटकर रोजी कमाता है या जो जलंधर की कोरियोग्राफर शादी संगीत में ‘दीदी तेरा देवर दीवाना’ पर दुल्हन को डांस सिखाकर कमाती है। या जो चांदनी चौक का टेलर सिमरन लहंगे सीकर परिवार पालता है।’

यह मत सोचिए कि हिन्दी सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का माध्यम है। ये मेरे और आप के जीवन का अभिन्न अंग है। इसके बावजूद जो कलाकार इस सिनेमा की रचना करते हैं, आज हम उन्हीं पर लांछन लगा रहे हैं। ये दिल तोड़ने वाला है। जो कलाकार दशकों से हमारा मनोरंजन करते आ रहे हैं, आज राजनीति में पक्ष-विपक्ष की जंग के हवनकुंड में, उन्हीं की आहूति दी जा रही है।

इंडस्ट्री को ढाल बनाकर लोगों का ध्यान भटकाया जा रहा है। यह खतरनाक है। पर अभी इसका अंत नजर नहीं आ रहा है। हम किसी को रोक तो नहीं सकते, लेकिन अगली बार आप किसी कलाकार के चरित्र पर फैसला सुनाएं या किसी गॉसिप आर्टिकल पर क्लिक करें, जो कुछ सनसनीखेज खुलासे का दावा करे, तो ये याद कर लीजिएगा कि ये वही लोग हैं, जिन्होंने अपनी कला से हमारा जीवन हर्ष-उल्लास से भरा है। ये इंडस्ट्री बनी है जुनूनी, प्रतिभावान और मेहनती लोगों के एकजुट होने से। और ये नहीं रुकेगी। द शो मस्ट गो ऑन। जैसा हमेशा होता आया है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)



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अनुपमा चोपड़ा, संपादक, FilmCompanion.in
Source http://bhaskar.com

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