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अगर मुसलमान वोटर एक मुसलमान पार्टी से बंध गए, तो हिंदू वोटों के लिए प्रतियोगिता पूरी तरह से खुल जाएगी

क्या हमारे चुनावी लोकतंत्र में मुसलमानों की एक अलग पार्टी उभरने वाली है? अगर ऐसा हो गया, तो ऐसी पार्टी का समूची राजनीतिक प्रतियोगिता के चरित्र पर क्या असर पड़ेगा? ये सवाल असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली मजलिस-ए-इत्तहादुल-मुसलमीन की कुछ हालिया चुनावी सफलताओं ने पैदा किए हैं। मजलिस कोई नई पार्टी नहीं है।

साठ के दशक में असदुद्दीन के पिता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी ने हैदराबाद में इसकी नींव डाली थी। शुरू में वे स्थानीय राजनीति तक सीमित रहे। फिर 1984 में साल भर पहले उभरी तेलुगु देशम पार्टी और कांग्रेस के बीच हिंदू वोटों के बंटवारे का लाभ उठाकर लोकसभा का चुनाव जीत गए। उन्होंने 1989-1991 के संसदीय चुनाव भी जीते, लेकिन हैदराबाद के बाहर अपने पांव फैलाने का न तो प्रयास किया, और न ही ऐसा कोई मौका उन्हें मिला।

उनके पुत्र असदुद्दीन में कुशल वक्ता होने के साथ-साथ संविधानसम्मत लगने वाली अल्पसंख्यक राजनीति करने का माद्दा है। उन्हें साफ दिखाई दे रहा है कि मुसलमान वोटों की दावेदारी करने वाले बाकी दल भाजपा द्वारा तय किए गए हिंदू एजेंडे के पीछे घिसट रहे हैं। ऐसे में अगर कोई प्रभावशाली मुसलमान आवाज़ लोकतांत्रिक लहज़े में हिंदू वोटों की बिना परवाह किए देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय (जिसे मौलाना आज़ाद माइनॉरिटी के बजाय दूसरी सबसे बड़ी मैजॉरिटी कहा करते थे) के सरोकारों को स्पर्श करेगी, तो उसे किसी न किसी स्तर पर अवश्य सफलता मिलना तय है।

ओवैसी ने दिखाया है कि उनके भीतर पुराने हैदराबाद में अपने जनाधार को अपने साथ रखते हुए (भाजपा की ज़बरदस्त चुनावी मुहिम के बावजूद नगर निगम के चुनाव में 51 में से 44 सीटें जीतना) नए इलाकों (बिहार के सीमांचल में पांच सीटों पर विजय) में नियोजित प्रसार की क्षमता है।

केवल इतने भर से एक अलग मुसलमान पार्टी बनने की सारी शर्तें पूरी नहीं हो सकतीं। ओवैसी को अभी दिखाना है कि न केवल वे स्वयं वोट ले सकते हैं बल्कि अपने सहयोगी दलों को भी मुसलमान वोट दिलवा सकते हैं। बिहार के चुनाव में मजलिस की मौजूदगी उसके दोनों सहयोगी दलों को मुसलमान वोट दिलवाने में नाकाम रही।

इसी तरह पश्चिम बंगाल में उनका मुकाबला ममता बनर्जी से होगा, जो गैर-भाजपा विपक्ष की तरह हिंदू-एजेंडे के पीछे नहीं घिसटतीं, और खुलकर मुस्लिम वोट पटाने में लगी रहती हैं। जिस तरह मायावती उप्र में जाटव वोट हस्तांतरित करवा सकती हैं, या नीतीश बिहार में कुर्मी वोट भाजपा को दिलवा सकते हैं, उस तरह का प्रभुत्व ओवैसी को मुसलमान वोटों के मामले में प्रदर्शित करना होगा। ज़ाहिर है कि एक अलग मुसलमान पार्टी की मंजि़ल अभी दूर है।

मुसलमानों की अलग पार्टी इस सिद्धांत पर ही आधारित हो सकती है कि समाज अनिवार्य रूप से मुसलमानों और गैरमुसलमानों में बंटा है, और मुसलमान हितों की सही नुमाइंदगी मुसलमान ही कर सकते हैं। हिंदुत्ववादी राजनीति के दुष्प्रभावों से हमारे लोकतंत्र के आंशिक बचाव को यह पार्टी पूरी तरह से खत्म कर देगी। फिर भी, व्यावहारिक दृष्टि से अगर आने वाले वक्त में ऐसी पार्टी बन भी गई, तो ज़रूरी नहीं कि उसका लाभ केवल भाजपा को ही मिले।

दरअसल, इसका उल्टा भी हो सकता है। अगर मुसलमान वोटर धीरे-धीरे राष्ट्रीय स्तर पर किसी एक मुसलमान पार्टी या कुछ मुसलमान पार्टियों से बंध गए, तो हिंदू वोटों के लिए चुनावी प्रतियोगिता पूरी तरह से खुल जाएगी। बाकी सभी दल मुसलमान वोटों की चिंता छोड़ देंगे। उस सूरत में भाजपा के लिए हिंदुओं की सर्वप्रमुख प्रतिनिधि पार्टी बने रहना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि तब उसे हिंदू-प्रतिक्रिया का लाभ आज की तरह मिलने की गारंटी नहीं रह जाएगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)



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अभय कुमार दुबे, सीएसडीएस, दिल्ली में प्रोफेसर और भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक
Source http://bhaskar.com

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