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पहाड़ों से टकराती थी Narendra Chanchal की बुलंद आवाज, सूना कर गए माता का दरबार

-दिनेश ठाकुर
माना जाता है कि भारतीय फिल्म संगीत में सिर्फ मोहम्मद रफी ऐसे गायक थे, जिनकी आवाज सुरों के दायरे में घूमती हुई सबसे ऊंचे सप्तक को छूती थी। 'बैजू बावरा' के 'ओ दुनिया के रखवाले' का असली जादू यही है कि इसमें रफी की आवाज जितनी सहजता से शिखर पर पहुंचती है, उतनी ही सहजता से नीचे उतरती है। कुछ-कुछ यही कमाल महेंद्र कपूर ने 'सोहनी महिवाल' के 'चांद छिपा और तारे डूबे, रात गजब की आई' में किया था। लेकिन संगीतकार नौशाद का मानना था कि अगर यह गीत रफी गाते, तो स्वर एक पायदान और ऊपर जाते। नरेंद्र चंचल ( Narendra Chanchal ) न मोहम्मद रफी थे, न महेंद्र कपूर, लेकिन जब गाते थे तो उनकी आवाज पहाड़ों से टकराती लगती थी। हमेशा ऊंची पिच में गाते थे। उम्रभर उन्होंने खुली-खुली आवाज में ऐसे गीत ही ज्यादा गाए, जिनमें आवाज को मध्यम से नीचे गंधार, ऋषभ या षड्ज तक उतरने की जरूरत नहीं पड़ती। माता की भेंटों के वह सरताज गायक थे। भेंट ज्यादातर रात्रि जागरण में गायी जाती हैं। इनके लिए ऊंची पिच की ऐसी आवाज जरूरी है, जो भक्तों को जगाए रखे और भक्ति के सागर में हिलोरों के मौके देती रहे। नरेंद्र चंचल ताउम्र यह काम बखूबी अंजाम देते रहे। माता की भेंटों के मामले में उनका वही मुकाम था, जो भजनों में हरिओम शरण का था।

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जब राज कपूर फिदा हुए आवाज पर
अमृतसर में जन्मे नरेंद्र चंचल की भेंटों की गूंज राज कपूर के कानों से तब टकराई, जब वह 'बॉबी' (1973) बना रहे थे। उन्होंने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल से गुजारिश की कि वह नरेंद्र चंचल से सम्पर्क साधें, उनके लिए इंद्रजीत सिंह तुलसी से विशेष गीत लिखवाया जा रहा है। 'बॉबी' के उस गीत 'बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो बुल्ले शाह ये कहता' ने अलग ही धूम मचाई। इसके लिए चंचल फिल्मफेयर अवॉर्ड से नवाजे गए। यहीं से उनके और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के सुरीले रिश्तों की शुरुआत हुई।

कभी गम से दिल लगाया...
इस जोड़ी के लिए चंचल ने जितने गीत गाए, सभी की गूंज आज भी कायम है। क्या 'महंगाई मार गई' (रोटी कपड़ा और मकान), क्या 'चलो बुलावा आया है' (अवतार) और क्या 'तूने मुझे बुलाया शेरांवालिए' (आशा)। कुछ दूसरे संगीतकारों ने भी चंचल की बुलंद आवाज का इस्तेमाल किया। गजल गायकी में धीमे सुरों का इस्तेमाल होता है, लेकिन चंचल ने एक गजल 'कभी गम से दिल लगाया' (डाकू) लम्बी तानों और ऊंचे सुरों में गायी। कबीर बेदी की फिल्म 'डाकू' नहीं चली। यह गजल आज तक सुनी जा रही है। अमिताभ बच्चन की 'बेनाम' (1974) का 'यारा ओ यारा' भी चंचल का सदाबहार गीत है।

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वाकिफ थे आवाज की हद से
नरेंद्र चंचल के बाकी लोकप्रिय फिल्मी गीतों में 'नंगे-नंगे पांव देवा' (भक्ति में शक्ति), 'मेरे दम से चांद-तारे' (जग्गू), 'मेरी जिंदगी तुम्हारे प्यार पे कुर्बान' (जीवन संग्राम), 'माता रानी तेरे दरबार' (खून की टक्कर), 'बेकद्रों नाल प्यार' (महानंदा), 'हर बंधन को तोड़कर' (रामकली), 'लूट लिया संसार' (फौजी), 'क्या लेकर आया है' (उम्र कैद), 'यार को अपने धोखा देकर' (राम भरोसे), 'न तो यहां कोई तेरा है' (संग्राम) आदि शामिल हैं। चंचल अपनी आवाज की हद से वाकिफ थे। उन्होंने इससे परे जाने को कोशिश नहीं की। फिल्मों से वह काफी पहले दूर हो गए थे। जगरातों में उनकी आवाज की धूम जारी थी। शुक्रवार को दिल्ली में उनकी सांसों का सफर थमने से माता का दरबार सूना-सूना-सा हो गया है।



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