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संजय गांधी की वो दोस्त जिन्होंने इंदिरा के लिए चलाए थे लात-घूंसे, लेकिन सोनिया के कह दिया- ना

12 जून, 1975। इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद इंदिरा गांधी सन्न थीं। राजनारायण की चुनाव याचिका पर उन्हें दोषी पाया गया। रायबरेली से उनकी जीत को रद्द कर दिया गया। प्रधानमंत्री की कुर्सी खतरे में थी। उधर आरके धवन, बंसीलाल और संजय गांधी की त्रिमूर्ति इंदिरा के समर्थन में जनज्वार जुटाने की तैयारी कर रही थी। संजय ने यूथ कांग्रेस की अध्यक्ष को भी इस काम पर लगाया। संजय के सहारे 33 साल की अंबिका सोनी तेजी से राजनीतिक कद बढ़ा रही थी। अगले दिन एक सफदरजंग रोड पर ही इंदिरा के समर्थन में रैली की तैयारी शुरू हो गई। इंदिरा की लोकप्रियता पर मुहर लगाने के लिए अंबिका ने शाम से ही तैयारी शुरू कर दी। संजय गांधी का साफ निर्देश था - जज ने चाहे जो कहा हो जनता इंदिरा को अपना नेता मानती है। कांग्रेस अध्यक्ष देबकांत बरूआ ने 'देश का नेता कैसा हो, इंदिरा गांधी जैसा हो' की गूंज पूरे देश में फैला दी थी। अब उसे टेस्ट करने की बारी थी। अंबिका ने यूथ कांग्रेस से प्रस्ताव पारित करवाया। इंदिरा गांधी देश की निर्विरोध नेता हैं और उन्हें इस्तीफा देने की कोई जरूरत नहीं है। उधर प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों ने बड़े ट्रांसपोर्टरों से संपर्क साधा और ट्रकों को गांवों की ओर रवाना किया गया। डीटीसी की बसें अचानक सड़कों से गायब हो गईं। अंबिका के निर्देश पर यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का नेटवर्क इन बसों को दिल्ली के आस-पास के इलाकों में रवाना करने लगा। आरके धवन ने पंजाब, हरियाणा, यूपी और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों को सीधा निर्देश दिया कि सारी सरकारी मशीनरी रैली में लग जाए। जब पार्टी टूटी तब इंदिरा ने अंबिका को साथ लिया ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। 1969 में जब इंदिरा ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और सोशलिस्ट मोरारजी देसाई ने सख्त विरोध किया तब भी इसी तरह की आपात रैली इंदिरा के समर्थन में आयोजित की गई थी। यही वो साल था जब सिंडिकेट ने इंदिरा को पार्टी से बाहर कर दिया। इंदिरा ने कांग्रेस (आर) बनाई। तभी उन्होंने अंबिका सोनी को पार्टी में शामिल कराया। अंबिका के पिता नकुल सेन वाधवा इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी थे। बंटवारे के समय अमृतसर के कलेक्टर रहे और जवाहरलाल नेहरू से निकटता बढ़ गई। इस लिहाज से अंबिका का इंट्री गांधी परिवार में बेरोकटोक रही और वो करीबी रिश्ता आजतक कायम है। हां राजनीतिक दृष्टिकोण पिछले 24 घंटों में बदल गए हों, तो कहा नहीं जा सकता। खैर, अगले दिन विशाल जनसमुद्र इंदिरा का इस्तकबाल कर रहा था। इंदिरा आवास में एक रेडिमेड मंच 1969 से ही तैयार था जब कांग्रसे पार्टी के अधिकृत राष्ट्रपति उम्मीदवार संजीव रेड्डी से अलग इंदिरा ने वीवी गिरी को समर्थन देने का ऐलान किया था। इंदिरा ने इसी मंच से हुंकार भरी। ये दुनिया की सबसे बड़ी रैली है। मुझे एक साजिश के तहत फंसाया जा रहा है। मैं हर चुनौती का मुकाबला करूंगी। तभी भीड़ में से कुछ लोगों ने हूटिंग शुरू कर दी। इंदिरा गांधी इस्तीफा दो के नारे ने मंच पर मौजूद नेताओं को चौंका दिया। अचानक छह फुट लंबी अंबिका मंच से उतरीं और उस हिस्से की ओर बढ़ गईं जहां से इंदिराविरोधी नारे लगाए जा रहे थे। अंबिका ने जिन नौजवानों पर संदेह हुआ उन पर थप्पड़ों की बौछार कर दी। इसके बाद सुरक्षाकर्मी वहां पहुंचे और विरोधियों को अरेस्ट कर लिया गया। आपातकाल लागू करने के एक साल बाद 1976 में इंदिरा ने अंबिका सोनी को राज्यसभा का सदस्य बना दिया। संजय गांधी की मौत और इंदिरा की हत्या के बाद भी गांधी परिवार से उनका लगाव बना रहा। अभी भी वो पंजाब से ही राज्यसभा की सदस्य हैं। शायद इसीलिए जब सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया तो बतौर उत्तराधिकारी अंबिका सोनी का खयाल पहले आया। शनिवार रात अंबिका अचानक राहुल के घर पहुंची। तभी से कयास लगने लगा कि नवजोत सिंह सिद्धू को बैलेंस करने के लिए अंबिका को सीएम बनाया जा सकता है। लेकिन रविवार सुबह अंबिका सोनी ने गांधी परिवार के ऑफर को ठुकरा दिया। इसके पीछे दो बातें छन कर आ रही हैं। पहला, अंबिका पार्टी की मजबूती के लिए किसी सिख को ही सीएम बनाने के पक्ष में हैं। दूसरा, अंबिका सोनी 79 साल की उम्र में गांधी परिवार का मुखौटा नहीं बनना चाहतीं। वो भी छह महीने के लिए क्योंकि अगले चुनाव में कांग्रेस की जीत की संभावना खुद पार्टी के ही नेताओं को दिखाई नहीं दे रही।
Source navbharattimes

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