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पाकिस्तान की जेबें खाली, चीन चल रहा चतुर चाल, आखिर तंगहाली से कैसे बचेगा तालिबान?

नई दिल्ली तालिबान ने चीन को अपना 'सबसे महत्वपूर्ण साझेदार' बताया है। उसका कहना है कि चीन की सरकार अफगानिस्तान के 'नव-निर्माण' के लिए जरूरी निवेश करने को तैयार है। क्या यह सही है? क्या चीन भी तालिबान की तरह अफगानिस्तान को लेकर इतना उत्साहित है? अफगानिस्तान से चीन का पुराना नाता चीन ने 7वीं सदी में अफगानिस्तान में सत्ता का स्वाद चखा था। फिर तांग राजवंश ने 659 ईस्वी में पश्चिमी तुर्कों को हराकर इलाके पर अपनी सत्ता कायम की। इस तरह, चीन का अफगानिस्तान पर आधिपत्य महज 100 सालों में ही खत्म हो गया। उसके बहुत बाद 19वीं सदी में ब्रिटेन और सोवियत यूनियन ने अफगानिस्तान को अपने काबू में लाने की कोशिश की। फिर अमेरिका की एंट्री हुई और दो दशक बीतते ही उसे बड़ी रुसवाई से अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा। ऐसे माहौल में अफगानिस्तान को लेकर चीन की जीभ दोबारा लपलपाने लगी। अफगानिस्तान को लेकर सपने देख रहा है चीन अभी अफगानिस्तान पर सीधा कब्जा तो नहीं किया जा सकता है, लेकिन चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, तालिबान राज में कई तरह के ख्वाब देख रहे हैं। वो अपने महत्वाकांक्षी 'बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI)' के तहत ऐतिहासिक 'सिल्क रोड' के पुनरुद्धार की कोशिश में जुटे हैं। इस लिहाज से तालिबान सरकार पर चीन का पर्याप्त प्रभाव बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि बीआरआई पाकिस्तान को पूरब और दक्षिण से जबकि ईरान को पश्चिम से और तुर्कमेनिस्तान-उज्बेकिस्तान को उत्तर से जोड़ेगा। यह प्रॉजेक्ट जमीन पर उतर गया तो ताजिकिस्तान और चीन उत्तर-पूर्व से जुड़ जाएंगे। एशिया के बड़े इलाके को आपस में जोड़ने की योजना हमेशा से चीन का सपना रहा है। अफगानिस्तान में ग्रेट गेम पार्ट 2? दरअसल, चीनी सेना ने अपने इलाके को अफगानिस्तान से जोड़ने के लिए साल 2009 में ही सड़क बनाना शुरू कर दिया था। इसके साथ ही, बीआरआई की लॉन्चिंग हो गई थी। उसके चार साल बाद शी जिनपिंग सत्ता में आए। दरअसल, चीन अफगानिस्तान से लगी 92 किलोमीटर की अपनी छोटी सी सीमा का आर्थिक और राजनीतिक फायदा उठाना चाहता है। उसकी सीमा अफगानिस्तान के साथ-साथ ताजिकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (POK) में पाकिस्तान से भी मिलती है। जिनपिंग 60 अरब डॉलर लागत वाले चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) को अफगानिस्तान से जोड़ने की मंशा रखते हैं। उनका मानना है कि इससे एक साथ दो लक्ष्य सध जाएंगे- एक तो चीन की सैन्य और सामरिक शक्ति बढ़ जाएगी और दूसरा, मुस्लिम देशों में उसकी सकारात्मक छवि बनेगी। तालिबान को तंगहाली से कौन बचाए? हालांकि, चीन को यह अहसास हो चुका है कि किसी बाहरी ताकत के लिए अफगानिस्तान में अपनी जड़ें जमाकर वहां लंबे समय तक अपना प्रभाव बनाए रख पाना लोहे का चना चबाने के समान है। यही वजह है कि उसने काबुल में नई तालिबान सरकार के गठन में अपनी भूमिका सुनिश्चित करने के लिए इस्लामी दुनिया के साथ तालमेल बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। उसने अफगानिस्तान के दो बड़े पड़ोसियों- पाकिस्तान और ईरान के अलावा कतर और तुर्की के साथ हाथ मिलाया जो तालिबान को शेष दुनिया से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इस मकसद से चीन ने जिस एक और ताकत के साथ गठबंधन किया है, वो है रूस जो सोवित संघ से निकले ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान पर अपनी पकड़ रखता है। संयोग से एकमात्र मुस्लिम सदस्य देश होने के नाते नाटो में तुर्की की भूमिका काफी अहम हो जाती है। अमेरिका ने ऐंठे तालिबान के कान विभिन्न देशों के साथ गठबंधन बनाने की कोशिशों के केंद्र में चीन की पश्चिमी देशों के प्रति संदेह की दृष्टि है। उसे लगता है कि पश्चिमी देश तालिबान की राह में न केवल रोड़ा अटका सकते हैं बल्कि विरोधी ताकतों को भी बढ़ावा दे सकते हैं। अमेरिका ने अपने पास जमा अफगान सरकार के अरबों डॉलर को फ्रीज करके चीन का यह डर बढ़ा दिया है। अमेरिका का यह कदम अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था को कमजोर करेगा जिससे वहां चीन की परीक्षा और कड़ी हो जाएगी। फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रहा चीन दरअसल, तंगहाली की हालत में तालिबान की निगाहें चीन की ओर उठेंगी और चीन का मौजूदा रुख बताता है कि वो अफगानिस्तान में पैसे लगाने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है। उसकी नजरें उन्हीं देशों पर हैं जो उसके उत्पादों के बाजार के लिहाज से अभी उपयोगी नहीं हैं। वह किसी देश में कल्याणकारी योजनाओं में उतना ही निवेश कर रहा है जिससे उस देश को भ्रम में रखा जा सके। उसका पूरा ध्यान उन इलाकों पर है जहां उसकी परियोजनाओं पर काम चल रहा है और स्थानीय लोगों के बीच पैठ बनानी है। तालिबान के साथ बने गुट में शामिल पाकिस्तान और रूस की आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत नहीं है कि वो काबुल की मदद कर सकें। ऐसे में ईरान, तुर्की और कतर ही तालिबान की मदद कर सकते हैं। लेकिन, दिक्कत यह है कि ये देश अपने-अपने तरीके के इस्लाम का अनुकरण करते हैं, इसलिए वो अफगानिस्तान में भी अपना ही इस्लाम लादना चाहेंगे। नए गेम में पाकिस्तान का नुकसान स्वाभाविक है कि इन देशों के बीच तालिबान पर प्रभाव जमाने की गहरी प्रतिस्पर्धा होगी। ऐसे में सबसे बड़ा नुकसान पाकिस्तान का होगा जिसने तालिबान का रास्ता साफ करने के लिए पंजशीर में अपनी सेना तक उतार दी। तालिबान को जब पैसे की जरूरत पड़ेगी तो पाकिस्तान के पास अपनी खाली जेब दिखाने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा। ऐसे में तालिबान पर उसका कितना प्रभाव रह पाएगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान को अपनी मजबूरी और भविष्य के संकटों का अंदाजा नहीं है। उसने यह सब भांपकर ही चीन और तालिबान के बीच संदेशवाह की अपनी भूमिका सुनिश्चित करने का भी रास्ता खोल रखा है। उधर, चीन भी चतुर चालें चल रहा है। वह तमाम पहलुओं पर गौर करके तालिबान को वैश्विक मान्यता दिलाकर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से मदद दिलाने की जद्दोजहद में जुटा है ताकि तालिबान को तंगहाली से बचाने की बड़ी जिम्मेदारी उसके कंधों पर ही न आ टिके।
Source navbharattimes

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