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बिहार से खफा क्यों नजर आ रहे हैं हेमंत सोरेन? भोजपुरी और मगही पर टिप्पणी राजनीति या भूल?

नई दिल्लीः झारखंड के सीएम बिहार से खफा क्यों हैं? बिहार की भाषा के प्रति तल्ख टिप्पणी हेमंत सोरेन की राजनीति का हिस्सा है या एक भूल? क्यों आए दिन हेमंत सोरेन ऐसे विवादों में फंस रहे हैं? यह सवाल तब उठे जब झारखंड के सीएम ने बिहार की भाषा-मगही और भोजपुरी पर तीखी टिप्पणी की जिसके बाद से बड़ा विवाद उठ गया है। पिछले दिनों हेमंत सोरेन ने यह कह कर विवाद खड़ा कर दिया कि मगही और भोजपुरी बिहार की भाषा है, झारखंड की नहीं। उन्होंने कहा-'भोजपुरी और मगही बिहार की भाषा है, झारखंड की नहीं। झारखंड का बिहारीकरण हो रहा है।' वह यहीं तक नहीं रुके और बोले कि महिलाओं की इज्‍जत पर हमला कर भोजपुरी भाषा में गाली दी जाती है। उन्होंने इसे झारखंड की अस्मिता से भी जोड़ा और कहा कि झारखंड आंदोलन में भी बिहार की भाषा का कोई योगदान नहीं रहा है। यह आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाओं के दम पर लड़ी गई थी। यह भी कहा कि 'जो लोग भोजपुरी, मगही बोलते हैं वे सभी डॉमिनेटिंग पर्सन हैं।' हेमंत सोरेन ने भोजपुरी भाषा बोलने वाले को झारखंड की संपदा पर नजर रखने वाला तक कहा। जाहिर है कि उनके इस बयान के बाद राजनीति तेज हुई। बीजेपी उन पर हमलावर हुई। लेकिन हेमंत सोरेन ने बाद में संकेत दिया कि उन्होंने बयान पूरी तैयारी के साथ दिया था और उन्हें पछतावा नहीं है। हेमंत के बयान के पीछे की वजह बिहार से खफा होने से अधिक अपनी क्षेत्रवाद की राजनीति को मजबूत करना है। इसके पीछे उनका अपना वोट बैंक है जिसे वह इस बहाने संदेश दे रहे हैं। रविवार को भी उन्होंने ट्वीट किया- 'आदिवासी हो भाषा वारंग क्षिति लिपि के निर्माता और महान साहित्यकार ओत् गुरू कोल लाको बोदरा जी की जयंती पर शत-शत नमन। यहां की समृद्ध जनजातीय और क्षेत्रीय भाषाएं झारखण्ड और झारखण्डियत की पहचान हैं। अपने पुरखों से सीख लेते हुए इनका संरक्षण और संवर्धन करना हम सभी की जिम्मेदारी है।' वादे को निभा रहे हैं सोरेन? दरअसल हाल के सालों में हेमंत सोरेन ने झारखंड में ट्राइबल के बीच में अपनी पैठ बनाई है और वे उनके एक मजबूत वोट बैंक के रूप में उभरे हैं। 2020 विधानसभा चुनाव में ट्राइबल के गुस्से का खामियाजा बीजेपी को भुगतना पड़ा था और तब चुनाव में हेमंत सोरेन ने अपने चुनावी वादों में लंबी लिस्ट रखी थी। स्थानीय और बाहरी का मुद्दा भी उठाया था। जमीन नीति में बदलाव करने के भी संकेत दिए थे। इसका उन्हें सियासी लाभ मिला। इन वादों पर आगे बढ़ने की अब चुनौती हेमंत के सामने थी। स्थानीय भाषा पर उनका यह बयान उसी राजनीति का हिस्सा बताया जा रहा है। अभी पिछले दिनों ही हेमंत सोरेन की सरकार ने राज्य में सरकारी नौकरियों में बहाली के लिए नई नीति का ऐलान किया था। इसमें एक क्षेत्रीय और एक आदिवासी भाषा में कम से कम 30 फीसदी नंबरों को मेरिट लिस्ट में आने के लिए अनिवार्य किया गया है। इसमें हिंदी को भी हटा दिया गया था। साथ ही स्थानीय लोगों के लिए प्रति माह 30 हजार की नौकरी में 75 प्रतिशत नौकरियों को आरक्षित करने के लिए रोजगार नीति को मंजूरी दी है। भाषा से लेकर नौकरी तक में स्थानीय बनाम बाहरी का मसला हेमंत सोरेन ने 2016 से ही उठाना शुरू किया था। 2016 में जब तत्कालीन बीजेपी सरकार ने नई डोमिसाइल नीति बनाई थी तब आरोप लगा कि इसमें आदिवासी हितों को दरकिनार किया गया। तभी से हेमंत सोरेन ने इस वोट पर अपनी पकड़ बनाने के लिए खास अभियान छेड़ दिया था। इसका लाभ भी मिला। सत्ता में आने के बाद भी वे इस मुद्दे को आगे बढ़ा रहे हैं। हेमंत के करीबियों के अनुसार वे अपनी इस रणनीति से पीछे नहीं हटेंगे। पेच में फंसेगी कांग्रेस राज्य में तकरीबन 28 फीसदी ट्राइबल आबादी है। राज्य में 28 फीसदी ट्राइबल के अलावा 12 फीसदी मुस्लिम भी हैं। हेमंत को लगता है कि अगर वह इस वोट को पूरी तरह अपनी तरफ करने में सफल रहे तो राज्य में उनका सियासी समीकरण बहुत मजबूत हो जाएगा। हाल ही में विधानसभा में नमाज के लिए अलग कमरा बनाने को लेकर विवाद भी हुआ। लेकिन इस राजनीति के अपने खतरे भी हैं। काउंटर ध्रुवीकरण का हमेशा खतरा रहता है। साथ ही चूंकि राज्य सरकार में कांग्रेस भी सहयोगी है, पार्टी के लिए ऐसी नीति को डिफेंड करना आसान नहीं होगा।
Source navbharattimes

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