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कभी एक इशारा ही काफी, अब चुनावी सियासत की बिसात पर कितने अहम हैं खाप?

लखनऊ 2014 में विकास के अजेंडे पर प्रधानमंत्री बनने के चार महीने बाद अक्टूबर में पीएम नरेंद्र मोदी हरियाणा के जींद में चुनावी रैली संबोधित कर रहे थे। मंच से उन्होंने खापों को खास तौर पर याद करते हुए कहा, 'यहां अनेक क्षेत्रों के विभिन्न खापों की सरदारी मौजूद है। मुझे आशीर्वाद देने के लिए पधारे उनकी सरदारी को शत-शत नमन करता हूं।' विधानसभा में सियासी समर्थन जुटाने के लिए पीएम का खापों को नमन उनकी सियासी अहमियत बताता है। अब एक बार फिर किसान आंदोलन को लेकर खाप मुखर हैं और सियासी दल उन्हें साधने में लगे हैं। खाप पंचायतों पर रिसर्च करने वाले चौधरी देवीलाल विश्वविद्यालय में लोक प्रशासन के पूर्व प्रफेसर राजकुमार सिवाच का कहना है कि फिलहाल सियासत में खापों की भूमिका अब सांकेतिक ही रह गई है। अब क्यों नहीं होता खाप के फरमान का असर? प्रफेसर राजकुमार 2014 के हरियाणा विधानसभा चुनाव की ही नजीर देते हुए कहते हैं कि 'यहां काफी प्रभावी रहने वाली मलिकों के गठवाला खाप के चौधरी दादा बलजीत सिंह खुद चुनाव हार गए। खाप से ही जुड़ी संतोष दहिया को भी जीत नहीं मिली।' 2000 के दशक तक राजनीति में खापों का इशारा अहम हुआ करता था। इसकी बड़ी वजह थी, तब वे सामाजिक मुद्दों पर मुखर थे। बाद में ये सियासी लॉन्च पैड बनने लगे। लोगों में भी जागरूकता आई और मुद्दों को तरजीह मिली। इसलिए, फरमान अब उतना असर नहीं डालते। मुद्दों से तय होता है माद्दा! किसान आंदोलन में सक्रियता और बैठकों को लेकर खाप फिर चर्चा में हैं। 28 जनवरी को भाकियू के प्रवक्ता और जाटों की बालियान खाप के मुखिया नरेश टिकैत के छोटे भाई राकेश टिकैत के आंसुओं के बाद यूपी से हरियाणा तक खापों की पंचायतों में सरकार के विरोध में सुर मुखर हैं। वेस्ट यूपी में कभी जाटों की पहली प्राथमिकता रही राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत की हाल में ही 'बड़े चौधरी' घोषित किए जाने की 'रस्म पगड़ी' हुई। इसमें सभी खापों के चौधरियों की जुटान हुई। 7 अक्टूबर से जयंत जनसभाएं शुरू कर रहे हैं। इस दौरान वे खाप के चौधरियों का आशीर्वाद भी लेंगे, जिससे विरासत फिर से मजबूत कर सकें। मुजफ्फरनगर के डीएवी कॉलेज में समाजशास्त्र के शिक्षक रहे डॉ. कलम सिंह कहते हैं, 'चुनावी लोकतंत्र में जाति या वर्ग समूह एक कड़वा सच है। नेता हो या उम्मीदवार उनका चयन काफी हद तक इसी आधार पर होता है। इसलिए एक वर्ग समूह के तौर पर खाप की भूमिका नजरअंदाज नहीं कर सकते। खासकर, अगर खाप के मुद्दे लोगों को जोड़ते हैं तो उसका असर अधिक होता है। मसलन, वेस्ट यूपी से लेकर हरियाणा तक खापों में बड़ी भागीदारी किसानों की है। इसलिए, किसान आंदोलनों में उनकी सक्रियता असर डाल सकती है। हालांकि, हर खाप से जुड़े लोग व्यक्तिगत तौर पर अलग-अलग सियासी दलों से जुड़े हैं। इसलिए, अब इनके दावे बहुत दमदार नहीं दिखते। कभी खाप के कहने पर बिरादरी के 60-70% वोट एक जगह पड़ जाते थे। फिर भी, जातीय जुड़ाव के लिए इनकी अहमियत है। इसलिए दिन में समानता की बात करने वाले दल रात में जातीय नेताओं के यहां भोज में जुटे होते हैं।' 'तेरा होना भी नहीं, तेरा कहलाना भी' खाप खुद को सामाजिक संगठन कहते हैं और खुले तौर पर कभी किसी सियासी दल के समर्थन और विरोध का ऐलान नहीं करते। यूपी में सबसे प्रभावी माने जाने वाली बालियान खाप को चर्चा किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के चलते मिली। उन्होंने किसान आंदोलन और सामाजिक मसलों पर तो पंचायतों का उपयोग किया लेकिन खुलकर कभी किसी राजनीतिक दल का समर्थन नहीं किया। हालांकि, 90 के दशक में इशारों में एकाध बार उन्होंने मंशा जरूरी दिखाई थी। हरियाणा में जरूर राजनीतिक दलों को खुलकर समर्थन करने को लेकर खापों में मतभेद की स्थिति रही। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव के पहले भी जाट आरक्षण को लेकर खाप पंचायतों से बीजेपी के विरोध में सुर उभरे, हालांकि, नतीजे बीजेपी के पक्ष में गए। 'किसान आंदोलन में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की भूमिका' नाम की किताब लिखने वाले अशोक बालियान कहते हैं कि 'चौधरी ने कहा था कि खापों को वहीं फरमान जारी करना चाहिए जो जनता माने, नहीं तो उनका सम्मान कम हो जाएगा।' लोकतंत्र में युवाओं, महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। लहर, मुद्दे व स्थानीय जरूरतें हर वोटर को प्रभावित करती हैं। इनके प्रभाव में खापों के फरमान अब असर खो रहे हैं। पिछले चुनाव इसकी नजीर हैं। क्या है खाप? हरियाणा में शिक्षाधिकारी रहे ओमपाल सिंह तुगानिया अपनी किताब ‘जाट समाज के आधार बिंदु’ में लिखते हैं कि ‘खाप एक सामाजिक न्याय व्यवस्था है। जब परिवार, गांव या स्थानीय स्तर पर किसी समस्या का समाधान नहीं हो पाता है तो एक बड़े क्षेत्र के लोगों को इकट्ठा किया जाता है। इसमें कई गांवों एवं जातियों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं। इसे ‘खाप’ कहा जाता है। इनके गांवों की संख्या तय होती है। जिस गोत्र के गांव या प्रतिनिधि अधिक होते हैं, उसका वर्चस्व अधिक होता है। वेस्ट यूपी, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों में इनका असर अधिक दिखता है। खापों के प्रतिनिधि इनका अस्तित्व 1500 साल से भी पुराना मानते हैं। हालांकि, इतिहासकारों का मानना है कि खाप शब्द का पहली बार दस्तावेजी इस्तेमाल 1891 में हुआ। जोधपुर में पहली बार जाति व धर्म के आधार पर हुई जनगणना में यह शब्द आधिकारिक तौर पर चलन में आया था। अमूमन इसके मुखिया का चुनाव वंशानुगत ही होता है। जाट प्रतिनिधियों का ही वर्चस्व! खाप पंचायतों पर शोध करने वाले डॉ. डीआर चौधरी ने अपनी किताब ‘ एंड मॉडर्न एज’ में लिखा है कि ‘पहले खाप में अलग- अलग जातियां शामिल हुआ करती थीं। आजादी के बाद पहली बार 1950 में मुजफ्फरनगर के सोरम में हुई सर्वखाप पंचायत में चौधरी जवान सिंह गुर्जर प्रधान, ठाकुर यशपाल सिंह उपप्रधान और चौधरी काबुल सिंह मंत्री थे। काबुल सिंह को छोड़कर बाकी नान जाट थे। हालांकि, बाद में खाप जाट गोत्रों व वर्चस्व तक ही सीमित हो गए। इस समय जाटों की 3000 से अधिक खापें अस्तित्व में हैं। वेस्ट यूपी में बालियान व देश खाप सबसे प्रभावी मानी जाती हैं। हालांकि, गुर्जर, त्यागियों, सैय्यदों आदि की भी खाप अभी चलन में हैं।
Source navbharattimes

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