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संपादकीयः अपनों के दायरे से आगे सामाजिक व्यवहार पर नई स्टडी

अंतरराष्ट्रीय रिसर्च जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ नैशनल अकेडमी ऑफ साइंसेज में पिछले सप्ताह प्रकाशित एक स्टडी रिपोर्ट ने बहुतों का ध्यान खींचा। इस स्टडी में पहली बार अलग-अलग देशों के संदर्भ में यह देखने की कोशिश हुई कि सामाजिक रूप से सचेत व्यवहार करने के मामले में किस देश के लोग कहां खड़े हैं? सामाजिक रूप से सचेत व्यवहार से मतलब है उन लोगों के हितों का, उनकी भावनाओं का भी ख्याल रखना, जो सीधे तौर पर हमसे जुड़े नहीं हैं, जिन्हें हम जानते नहीं है। खास बात यह कि इसमें सिर्फ उन व्यवहारों को शामिल किया गया, जिनके लिए हमें कुछ खर्च नहीं करता पड़ता या जिनमें समय लगाने की जरूरत नहीं होती। 31 देशों के लोगों पर की गई इस स्टडी के मुताबिक, भारत इस मामले में नीचे से तीसरे नंबर पर है। तुर्की और इंडोनेशिया ही उससे नीचे हैं। इस मामले में टॉप पर है जापान, जहां लोगों के अच्छे व्यवहार का प्रतिशत 72 है। ऑस्ट्रेलियाई 69 फीसदी और मेक्सिकन 68 फीसदी के साथ क्रमशः दूसरे और तीसरे नंबर हैं। भारत 50 फीसदी पर है। उल्लेखनीय है कि दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखने का मतलब सिर्फ सॉरी -थैंक्यू कहना नहीं है। वरना दुनिया के सबसे विनम्र लोगों वाला देश कनाडा इस स्टडी में 57 फीसदी पॉइंट के साथ कम स्कोर वाले देशों में शामिल नहीं होता। बहरहाल, यह नंबरिंग खास मायने नहीं रखती। महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि आम तौर पर हमारा व्यवहार हमारी व्यापक सामाजिक चेतना पर निर्भर करता है, जो काफी हद तक हमारे सांस्कृतिक परिवेश से तय होती है। विभिन्न देश, समाज इस मामले में अलग-अलग स्थिति में क्यों हैं, यह एक जटिल सवाल है। इस स्टडी रिपोर्ट में भी यही कहा गया है कि विभिन्न देशों की अलग-अलग स्थिति की व्याख्या करने के लिए और अध्ययन करने की जरूरत है, लेकिन दो बातें साफ हैं। एक तो यह कि जिन देशों और समाजों में लोग उन्नत सामाजिक चेतना से लैस हैं यानी जहां वे अनजान लोगों के हितों, उनकी भावनाओं को लेकर भी सचेत होते हैं, वहां पारस्परिक विश्वास ज्यादा होता है जिसका सकारात्मक प्रभाव राजनीतिक, आर्थिक नीतियों और विकास पर होता है। उदाहरण के लिए, वहां कड़े कानूनों की जरूरत नहीं पड़ती और माहौल में खुलापन होता है। दूसरी बात यह है कि ये सामाजिक मानदंड एक जैसे नहीं रहते। समय के साथ इनमें बदलाव आता है। मतलब यह कि चाहे जितनी भी जटिल प्रक्रिया हो, उसका सावधानी से विश्लेषण करते हुए बदलाव की इस प्रक्रिया को सकारात्मक मोड़ दिया जा सकता है। अगर अपने देश के सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में इसकी पड़ताल की जाए तो वसुधैव कुटुंबकम यानी पूरी पृथ्वी को परिवार मानने के आदर्श के साथ अपने ही समाज के कुछ खास हिस्सों को खुद से अलग मानने के यथार्थ का विरोधाभास अच्छी केस स्टडी हो सकता है।
Source navbharattimes

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