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कभी बोलती थी तूती, आज प्रमोद महाजन को BJP ने ही गुमनामी के अंधेरे में क्यों धकेल दिया

राधिका रमाशेषण राजनीतिक दल किसी नेता या किसी हस्ती की जयंती या पुण्यतिथि को भी सियासी नफे-नुकसान की कसौटी पर तौलकर मनाती हैं। कांग्रेस कभी भी नेहरू-गांधी को याद करने का कोई भी मौका नहीं चूकती। यह कांग्रेस के अतीत, वर्तमान और भविष्य में नेहरू-गांधी परिवार की श्रेष्ठता बनाए रखने की कवायद का हिस्सा है। बीजेपी के पास याद करने के लिए कोई एक परिवार नहीं है। यह श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, दत्तोपंत ठेंगडी जैसी हस्तियों की स्मृतियों को संजोती है। इनकी जयंती, पुण्यतिथि या उनके राजनीतिक जीवन की अहम घटनाएं बीजेपी के कैलेंडर में स्वर्णिम अक्षरों से लिखी गई हैं। प्रमोद महाजन को भूल गई बीजेपी लेकिन एक सालगिरह ऐसी है जिसे बीजेपी ने एक तरह से भुला ही दिया है। यह है प्रमोद महाजन की जयंती और पुण्यतिथि। अगर बीजेपी के इतिहास को कोई निष्पक्ष होकर कलमबद्ध करे तो बाद के दिनों में बीजेपी की कामयाबी के लिए जिन्हें श्रेय जाता है उनमें वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, कल्याण सिंह और नरेंद्र मोदी के साथ प्रमोद महाजन का नाम भी आता है। अगर 3 मई 2006 को प्रमोद महाजन की पारिवारिक विवाद में हत्या नहीं हुई होती तो वाजपेयी-आडवाणी युग के बाद बीजेपी की सूरत कुछ और रही होती। सिर्फ इन नेताओं को याद हैं महाजन बीजेपी प्रमोद महाजन को पूरी तरह भुला चुकी है। उनकी याद में इकलौता कार्यक्रम सुधांशु मित्तल करते हैं। वह हर साल 30 अक्टूबर को महाजन की जयंती मनाते हैं। मित्तल प्रमोद महाजन के करीबी रहे थे। हालांकि, वह दिल्ली के एक कॉलेज में अरुण जेटली के साथ पढ़े हैं। कुछ साल पहले तक मित्तल अपने दफ्तर में महाजन से जुड़ी यादों को संजोकर रखे थे, जिसे अब हटा दिया है। मित्तल के अलावा मुंबई के पूर्व बीजेपी विधायक अतुल शाह अपने फेसबुक पेज पर महाजन की जयंती मनाते रहे हैं। एक वक्त था जब महाराष्ट्र में बीजेपी के हर दफ्तर में महाजन की तस्वीरें लगी रहती थीं। प्रमोद महाजन का लंबा संसदीय जीवन रहा लेकिन वह ज्यादातर राज्यसभा के सदस्य रहे। वह सिर्फ एक बार 1996 में वह मुंबई नॉर्थ ईस्ट से लोकसभा चुनाव जीते और फिर अगला चुनाव हार गए। हालांकि, इस मामले में उनका रिकॉर्ड जेटली से बेहतर है जो कभी लोकसभा के लिए नहीं चुने गए। अद्भुत वक्ता थे प्रमोद महाजन बीजेपी को बीजेपी बनाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी जब 90 के दशक में सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, केएन गोविंदाचार्य और एम. वेंकैया नायडू के साथ टीम बना रहे थे, तब महाजन को दिल्ली लेकर आए। आडवाणी ने उनकी क्षमताओं को पहचाना। महाजन देश की राजनीतिक नब्ज को पहचानने वाले नेता थे। वह एक शानदार वक्ता थे जो सुनने वालों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उनके अंदर यह क्षमता थी कि बीजेपी के वर्जन वाले इतिहास और हिंदू पौराणिक कथाओं को एक साथ जोड़कर कार्यकर्ताओं को लामबंद कर सकें, उनमें जोश भर सकें। वह पार्टी के लिए संकटमोचक थे। 1995-96 में जब गुजरात में बीजेपी की अंदरूनी कलह नियंत्रण से बाहर हो रही थी तब वाजपेयी ने महाजन को ही याद किया। उन्होंने ही शंकर सिंह वाघेला और मोदी के बीच सुलह कराई। धारणाओं को धता बताते रहे महाजन बीजेपी में कुछ लोग महाजन को सूट-बूट वाला ऐसा नेता मानते थे जिसकी जमीनी पकड़ नहीं थी। ऐसा शायद नेताओं के बारे में भारतीयों की धारणाओं की वजह से हो। नेताओं के बारे में लोगों की यही धारणा थी कि उन्हें सीधा-सादा दिखना चाहिए, कुर्ता-पायजामा और चप्पल में दिखना चाहिए लेकिन महाजन इसके उलट थे। वह 'रे बैन' का चश्मा पहनते थे। मोबाइल फोन चलाते थे और स्टाइलिश कार से चलते थे। 1995 में बीजेपी की मुंबई में हुई बैठक में वाजपेयी को पीएम कैंडिडेट घोषित किया गया। तब महाजन मीटिंग में एक स्टाइलिश कार से पहुंचे थे, हाथ में मोबाइल था, आंखों पर रे बैन के सनग्लासेज। आज नेताओं के लिए इस तरह की स्टाइल आम बात है। जब फीकी पड़ी चमक वाजपेयी काल में महाजन की तूती बोलती थी, लेकिन वक्त के साथ बीजेपी के दूसरे उभरते नेताओं की वजह से महाजन की चमक फीकी पड़ी। सुषमा स्वराज की चुनावी कामयाबियां, जेटली की राजनीतिक और कानूनी समझ ने उनका कद बढ़ाया। 2002 के गुजरात चुनाव में जीत के बाद नरेंद्र मोदी बीजेपी में ताकतवर हुए और उनका कद सुषमा और जेटली से भी ऊपर हो गया। ऐसा कहा जाता है कि दिसंबर 2004 में महाजन ने गुजरात के सीएम पद से मोदी के इस्तीफे की मांग के लिए स्मृति इरानी को आगे किया था। 2004 में बीजेपी की हार और महाजन बीजेपी में महाजन का कद तब घटना शुरू हुआ जब बीजेपी 2004 के लोकसभा चुनाव में हार गई। उन्होंने ही 'फील गुड' का जुमला गढ़ा था जो चुनावों में बैकफायर कर गया। उनके करीबी उस हार के लिए गुजरात दंगों को जिम्मेदार बताते थे। 2004 की हार के झटके से वाजपेयी भी कभी उबर नहीं पाए। वाजपेयी के बेहद करीबी और वफादार माने जाने वाले महाजन ने एक बार उन्हें तब झटका दिया था जब उन्हें उनकी शायद सबसे ज्यादा जरूरत थी। अप्रैल 2002 में पणजी में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक थी। वाजपेयी गुजरात दंगों की वजह से नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहते थे। उन्हें उम्मीद थी कि पणजी बैठक में यह आवाज जोर पकड़ेगी। उन्होंने इसके लिए समर्थन जुटाने के खातिर महाजन पर भरोसा किया। लेकिन बैठक में वाजपेयी अलग-थलग पड़ गए। महाजन समेत तमाम सदस्यों ने मोदी के मुख्यमंत्री बने रहने के पक्ष में वोट दिया। (राधिका रमाशेषण राजनीतिक विश्लेषक हैं। ऊपर उनके निजी विचार हैं।)
Source navbharattimes

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