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इंटरव्यू: 'गांधी की अर्थनीति को कांग्रेस के किसी नेता ने नहीं माना, नेहरू-पटेल ने भी नहीं '

नई दिल्ली प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी विचारक सच्चिदानंद सिन्हा 92 साल के हो गए हैं। दर्शन, राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति और पर्यावरण संबंधी उनके लेखन का संग्रह हाल ही में आठ खंडों में छप कर आया है। वह शहरों की आपाधापी से दूर बिहार के एक गांव में रहते हैं। गांधीवादी तरीके से बहुत कम संसाधनों के इस्तेमाल वाली जीवन-शैली अपना रखी है। मुजफ्फरपुर के करीब उनका मणिका गांव स्वतंत्रता आंदोलन और भूमि संघर्षों के लिए चर्चित रहा है। साठ के दशक के आखिर में नक्सलबाड़ी के बाद फैले हिंसक भूमि-संघर्ष को शांत करने के लिए जयप्रकाश नारायण यहां आकर बहुत समय के लिए रहे थे। अनिल सिन्हा ने उसी गांव की एक शाम सच्चिदा बाबू के साथ बिताई और आजादी के आंदोलन से लेकर जलवायु परिवर्तन तक के मुद्दों पर उनसे विस्तार से बातचीत की। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश : सवाल- आप आजादी के आंदोलन को किस तरह देखते हैं? दुनिया के बाकी देशों के उपनिवेशवादी-विरोधी आंदोलनों के विपरीत यहां विचारधाराओं के बीच संघर्ष हिंसक लड़ाई में नहीं बदला। अलग-अलग विचार के लोग साथ काम करते रहे। किसी ने भी प्रतिद्वंद्वी विचार रखने वालों को खत्म करने की नहीं सोची। विचारों के इस अनोखे सह-अस्तित्व को आप कैसे देखते हैं? जवाब- आजादी के आंदोलन को सतत विकास की एक प्रक्रिया के रूप में देखना चाहिए। आजादी के आंदोलन में विभिन्न विचारों के बीच जो समन्वय दिखाई देता है, वह गांधी जी का असर था। तिलक का अहिंसा में कोई विश्वास नहीं था। लेकिन गांधी जी ने उनके निधन के बाद तिलक स्वराज फंड के लिए खूब काम किया। उन्होंने कांग्रेस के भीतर विभिन्न विचारों को पनपने दिया। उनके साथ कई लोगों का वैचारिक टकराव हुआ। सुभाष चंद्र बोस के साथ तो उनका वैचारिक टकराव इस हद तक गया कि कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को अपना समर्थन दिया। सुभाष बाबू के चुने जाने के बाद गांधी जी ने यहां तक कह दिया कि पट्टाभि की हार मेरी हार है। लेकिन इस टकराव के बाद भी उनके संबंध ऐसे थे कि सुभाष बाबू ने ही महात्मा गांधी को पहली बार राष्ट्रपिता कहा। यह समन्वय हमें जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और अन्य नेताओं के बीच भी दिखाई देता है। सवाल- कई लोग मानते हैं कि जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी के बीच आर्थिक विचारों को लेकर गंभीर मतभेद थे। इनका कहना है कि नेहरू ने जो आर्थिक नीतियां अपनाई, वे गांधी जी की आर्थिक सोच से अलग थी। ये लोग तो यहां तक कहते हैं कि अगर गांधी जी की नीतियां अपनाई जातीं तो हमारी अर्थव्यवस्था अलग तरह की होती... जवाब- यह सच है कि गांधी जी एकदम अलग राय रखते थे। वह ग्राम गणराज्य और छोटी अर्थव्यवस्था-चरखा-करघा-की बात करते थे। लेकिन इसे कांग्रेस के किसी नेता ने कबूल नहीं किया। नेहरू और पटेल ने भी नहीं। फिर भी हम ऐसा नहीं कह सकते कि नेहरू या पटेल ने गांधी जी से उनके नीति के विरोध की कोई नीति अपनाई। नेहरू या पटेल मिल कर सरकार चला रहे थे और अर्थ नीतियों को लेकर समान राय रखते थे। गांधी जी ने कभी अपनी नीतियां उन पर लादने की कोशिश नहीं की। सच तो यह है कि अंतिम दिनों में गांधी जी के सामने यह सब मामला गौण था। तब उन्हें लग रहा था कि अगर सांप्रदायिक आग बुझाई नहीं गई तो भारत एक मानवीय समाज के रूप में खत्म हो जाएगा। इसके लिए वह उस उम्र में नोआखाली के गांव-गांव गए। वह देश के दूसरे हिस्सों में गए। उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। उन्हें इस पर कोई ध्यान ही नहीं रहा कि कौन सी टेक्नलॉजी है, क्या अर्थनीति है। उन्हें लग रहा था कि अगर यह आग नहीं बुझी तो भारत का विघटन हो जाएगा। सवाल- जब गांधी जी के आर्थिक विचारों की बात आई है तो यह सवाल उठेगा ही कि साम्यवाद भी उसी टेक्नलॉजी के पक्ष में है, जिसे पूंजीवाद अपनाता है। क्या आपको नहीं लगता कि बराबरी वाला समाज बनाने के लिए टेक्नलॉजी में भी परिवर्तन की जरूरत है? जवाब- आधुनिक टेक्नलॉजी में गैर-बराबरी अंतर्निहित है। एक आदमी ऊपर होता है और बाकी उसके मातहत। यह क्रम चलता है। कारखानों की व्यवस्था ऐसी ही है। रूसी क्रांति हो जाने के बाद भी यही स्वरूप रहा। राज्य का ढांचा ऐसा ही रहा। अगर इसे तोड़ना है तो टेक्नलॉजी में भी परिवर्तन करना होगा। हमें केंद्रीकृत टेक्नलॉजी छोड़नी पड़ेगी। इसके बगैर हम बराबरी नहीं पैदा कर सकते हैं। गांधी जी के चरखे में ऊपर-नीचे का सवाल ही नहीं पैदा होता है। सवाल- मार्क्स ने टेक्नलॉजी के विकास को लेकर कोई अलग राय नहीं रखी है। ऐसे में गांधी की प्रासंगिकता बढ़ जाती है... जवाब- मार्क्स ने पश्चिम में हुए आर्थिक विकास का अध्ययन किया। उन्होंने वहां के तकनीकी परिवर्तनों का गहराई से विश्लेषण किया है। जलवायु परिवर्तन का सवाल बाद में सामने आया है। गांधी प्रासंगिक हैं। लेकिन हम इतना आगे निकल गए हैं कि एकदम से गांधी वाली व्यवस्था पर नहीं आ सकते। लेकिन ऊर्जा आधारित अर्थव्यवस्था इसी तरह चलती रही तो हम अपने ग्रह के विनाश को टाल भी नहीं सकते हैं। पृथ्वी बचानी है तो हमें बीच का रास्ता अपनाना पड़ेगा। यह जरूरी है कि हम छोटे और मध्यम दर्जे की टेक्नलॉजी अपनाएं। जलवायु परिवर्तन के संकट से निकलने का कोई और रास्ता नहीं है।
Source navbharattimes

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