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'कानून वापसी तो घर वापसी' कहने वाले राकेश टिकैत अब एमएसपी पर अड़े, क्या हैं उनकी इस जिद के कारण

नई दिल्ली विवादित कृषि कानूनों की वापसी के ऐलान के बाद भी किसान आंदोलन खत्म कर घर नहीं लौटे हैं। आगे की रणनीति को तय करने के लिए शनिवार को संयुक्त किसान मोर्चा की कोर कमिटी की बैठक हुई लेकिन इसमें राकेश टिकैत शामिल नहीं हुए। गुरुवार को सिंघु बॉर्डर पर आंदोलन में शामिल सभी 42 किसान संगठनों की आम बैठक होगी। हालांकि, बिल वापसी तो घर वापसी की बात कहने वाले राकेश टिकैत एमएसपी को कानूनी गारंटी का जामा पहनाने की मांग को लेकर आंदोलन आगे भी खींचने के संकेत दे चुके हैं। आखिर, टिकैत की इस जिद के पीछे क्या है, आइए समझते हैं। किसान आंदोलन से अगर किसी का कद सबसे ज्यादा बढ़ा तो बिना शक वह राकेश टिकैत ही हैं। इस आंदोलन ने उन्हें हीरो बनाया है। इस साल 26 जनवरी को दिल्ली में लाल किले पर हुई हिंसा के बाद लगा था कि आंदोलन अब खत्म हो जाएगा। दिल्ली के बॉर्डरों से आंदोलनकारी किसान अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर घर-वापसी भी करने लगे थे। लेकिन वह टिकैत ही थे जिन्होंने आंदोलन में नई जान फूंकी। गाजीपुर बॉर्डर पर राकेश टिकैत खुद को बीजेपी विधायक से जान का खतरे की बात करते भावुक हो गए। फफक-फफक कर रो पड़े। फिर क्या था, पश्चिमी यूपी के तमाम गांवों से ट्रैक्टर-ट्रॉली के साथ किसानों का जत्था रातों-रात गाजीपुर बॉर्डर आ धमका। दम तोड़ते दिख रहे आंदोलन को नया जोश और नई ऊर्जा मिल गई। टिकैत को भी पता है कि इस तरह का आंदोलन बार-बार नहीं होता। सरकार दबाव में है। लिहाजा एमएसपी के मुद्दे पर उसे और दबाव में लाया जा सकता है। एमएसपी को कानूनी जामा पहनाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने का इससे बेहतरीन वक्त शायद ही कोई और हो। एक और वजह आंदोलन को एक खूबसूरत मोड़ देकर यादगार अंदाज में खत्म करने की चाहत भी हो सकती है। इसमें कोई शक नहीं कि राकेश टिकैत किसान आंदोलन के सबसे बड़े चेहरे हैं। कृषि कानूनों की वापसी का सबसे ज्यादा श्रेय उन्हीं को जाता है और इस क्रेडिट के लिए उन्हें अलग से कुछ कहने, करने की जरूरत नहीं होगी। हो सकता है कि टिकैत और दूसरे किसान नेता आंदोलन को 'जीत के जश्न' के जरिए खत्म करना चाहते हों। जब जीत इतनी बड़ी हो तो जश्न भी बड़ा होना चाहिए। लिहाजा संसद से कृषि कानूनों को वापस लिए जाने पर मुहर लगने के बाद विजय रैली या किसान विजय महापंचायत तरह के किसी भव्य आयोजन के बाद आंदोलन खत्म करने का ऐलान हो सकता है। संयुक्त किसान मोर्चा की रविवार को होने वाली बैठक के बाद इस अगर-मगर से भी पर्दा उठ सकता है। आंदोलन को लंबा खींचने के पीछे राकेश टिकैत की अपनी निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी हो सकती है। हालांकि, चुनावी राजनीति का टिकैत का अनुभव बहुत कड़वा रहा है। 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव में उन्होंने मुजफ्फरनगर की खतौली सीट से बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव भी लड़ा था लेकिन उन्हें करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अमरोहा सीट से राष्ट्रीय लोकदल के उम्मीदवार के तौर पर किस्मत आजमाई लेकिन इस बार भी उन्हें बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। इस लिहाज से इसके आसार कम हैं कि वह आंदोलन का निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए इस्तेमाल करेंगे। हां, आंदोलन ने उनका कद इतना जरूर बढ़ा दिया है कि वह अब अपने पिता महेंद्र टिकैत की तरह पूरी तरह अराजनीतिक रहकर सरकारों पर दबाव बना सकते हैं। राकेश टिकैत की जिद के पीछे बीजेपी को सबक सिखाने का भाव भी हो सकता है। आंदोलन के दौरान कई किसानों को जान गंवानी पड़ी। किसान संगठनों का तो दावा है कि कम से कम 70 किसान 'शहीद' हुए हैं। अब पीएम ने कृषि कानूनों को भले ही वापस लेने का ऐलान किया है लेकिन किसान नेताओं खासकर राकेश टिकैत के भीतर किसानों की 'शहादत' की टीस बरकरार है। हो सकता है कि टिकैत आंदोलन को यूपी समेत 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव तक खींचने की कोशिश करें ताकि सबक के तौर पर बीजेपी को सियासी नुकसान पहुंचाया जा सके।
Source navbharattimes

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