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मोदी-शाह के सामने जनता एक्सपेरिमेंट 2.0, वो भी बगैर कांग्रेस! कितना सफल हो पाएंगी ममता?

नई दिल्ली 'यूपीए क्या है? अब यूपीए नहीं है।' ममता बनर्जी का मुंबई में दिया यह बयान 2024 से पहले राष्ट्रीय राजनीति में एक नए तरह के 'जनता एक्सपेरिमेंट' का इशारा है। दीदी जब कांग्रेस की अगुआई वाले यूपीए के वजूद को ही सिरे से नकार रही थीं, तब उनके ठीक बगल में एक और सियासी छत्रप एनसीपी चीफ शरद पवार भी मौजूद थे। इसलिए भी इस बयान की अहमितयत बढ़ जाती है। ममता के बयान से कांग्रेस बेचैन तो है लेकिन उसके नेता दम भर रहे हैं कि बिना कांग्रेस के कोई भी गठबंधन मोदी-शाह की बीजेपी का सामना नहीं कर सकता। कांग्रेस के इस दावे में कितना दम है, क्या ममता 'जनता एक्सपेरिमेंट-2' में कामयाब हो पाएंगी, क्या कांग्रेस को अलग-थलग कर बीजेपी का मुकाबला किया जा सकता है, आइए समझते हैं। ममता के बयान से कांग्रेस में बेचैनी ममता सिर्फ कांग्रेस की अगुआई वाले यूपीए के वजूद को नहीं नकार रहीं बल्कि सीधे-सीधे कांग्रेस नेतृत्व को भी निशाने पर ले रही हैं। मुंबई में ही एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने इशारों-इशारों में राहुल गांधी पर बेहद तीखा हमला बोला। कहा- 'आधा समय विदेश में और आधा समय देश' में रहने वाले नेता बीजेपी को टक्कर नहीं दे सकते। दीदी के तीखे बयानों से कांग्रेस में बेचैनी है। पश्चिम बंगाल के दिग्गज कांग्रेसी और लोकसभा में पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी ने तो ममता बनर्जी पर बीजेपी को फायदा पहुंचाने का आरोप जड़ दिया। 'कांग्रेस के बिना यूपीए जैसे बिन आत्मा शरीर' ममता के बयान पर पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने ट्वीट किया है कि कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता की बात ही बेमानी होगी। उन्होंने ट्वीट किया, 'कांग्रेस के बिना यूपीए वैसा ही होगा जैसे आत्मा के बिना शरीर। यह वक्त विपक्षी एकता को दिखाने का है।' कांग्रेस के एक और बड़े नेता दिग्विजय सिंह ममता बनर्जी पर पलटवार करते हुए सवाल दागते हैं- कांग्रेस को छोड़कर देश की कौन सी ऐसी पार्टी है जो 1947 से लेकर अबतक बीजेपी के साथ मिलकर सरकारें नहीं बनाईं। कांग्रेस नेता के निशाने पर ममता हैं जो बीजेपी की अगुआई वाली अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री थीं, उनकी पार्टी टीएमसी तब एनडीए का अहम हिस्सा थी। दिग्विजय कहते हैं, 'अगर सड़कों पर कोई भाजपा का विरोध कर रहा है तो वह कांग्रेस पार्टी है।' किस राह पर ममता बनर्जी? बंगाल में जीत की हैटट्रिक से ममता उत्साह से लबरेज हैं। वह राष्ट्रीय स्तर पर आक्रामक ढंग से टीएमसी के विस्तार में जुटी हैं। तमाम राज्यों में कांग्रेस के बड़े नेताओं को टीएमसी में शामिल करा वह राष्ट्रीय स्तर पर खुद को नरेंद्र मोदी के मजबूत विकल्प के तौर पर पेश करने के मिशन पर हैं। वह नरेंद्र मोदी और बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता की धुरी बनने की कोशिश में हैं। संदेश साफ है- 2024 में बीजेपी को रोकने के लिए मजबूरी में ही सही लेकिन कांग्रेस ममता का नेतृत्व कबूल करे। हालांकि, ऐसी भी कोई मजबूरी नहीं हो सकती कि देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर एक क्षेत्रीय पार्टी का नेतृत्व स्वीकार कर ले। ऐसे में जाहिर है कि ममता जिस राह पर बढ़ रही हैं वह एंटी-बीजेपी, एंटी-कांग्रेस मोर्चे की तरफ जाती है। इस तरह की कोशिशें पहले भी हुई हैं जो नाकाम रहीं। किसी भी तरह का तीसरा या चौथा मोर्चा विपक्षी एकजुटता के लिए बड़ा झटका ही साबित होगा और एंटी-बीजेपी वोटों के बिखराव का ही कारण बनेगा। ममता के खास सिपहसालार और पेशेवर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने भी यह राग छेड़ दिया है कि विपक्षी दलों को अपना नेता चुनने दिया जाए। वह भी पिछले 10 सालों में कांग्रेस के खराब चुनावी प्रदर्शनों पर तंज कसने से नहीं चूके। तब कांग्रेस के खिलाफ हुआ था 'जनता एक्सपेरिमेंट' ममता बनर्जी बीजेपी के खिलाफ उसी तरह विपक्षी एकता की कोशिश कर रही हैं जैसा कभी कांग्रेस के खिलाफ जनता एक्सपेरिमेंट के तौर पर हुआ था। केंद्र में कांग्रेस के एकछत्र राज को चुनौती देने के लिए 1977 में ज्यादातर विपक्षी पार्टियां 'जनता पार्टी' के बैनर तलें एकजुट हुई थीं। इमर्जेंसी के बाद हुए उस चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई। महज 154 सीटों पर सिमट गई। पार्टी का तीन दशकों से चला आ रहा एकछत्र राज खत्म हो गया। जनता पार्टी की आंधी में कांग्रेस के बड़े-बड़े सूरमा धराशायी हो गए। खुद इंदिरा गांधी अपनी रायबरेली सीट नहीं बचा पाईं। उनके बेटे संजय गांधी भी चुनाव हार गए। 295 सीटों के साथ मोराजी देसाई की अगुआई में जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आई। देश पहली गैर-कांग्रेसी सरकार का गवाह बना। यह बात दीगर है कि अपने अंतर्विरोधों की वजह से जनता एक्सपेरिमेंट ज्यादा वक्त तक नहीं चल पाया। 2 साल बाद ही मोराजी देसाई सरकार गिर गई। चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने लेकिन 23 दिन में ही उनकी भी सरकार गिर गई और 1980 में फिर लोकसभा चुनाव कराने पड़े। तब कांग्रेस-इंदिरा को रोकना था मकसद, अब बीजेपी-मोदी को रोकना लक्ष्य आज ममता बनर्जी बीजेपी के खिलाफ छोटे-बड़े विपक्षी दलों को साथ लाकर एक तरह से 'जनता एक्सपेरिमेंट' को ही दोहराना चाहती हैं। फर्क यह है कि तब मुकाबला कांग्रेस से था, आज मुकाबला बीजेपी से है। तब इंदिरा गांधी थीं, आज नरेंद्र मोदी हैं जो लगातार दूसरी बार पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता पर काबिज हैं। लेकिन बिना कांग्रेस के 'जनता एक्सपेरिमेंट-2' की डगर बहुत मुश्किल है। बिना कांग्रेस के जनता एक्सपेरिमेंट-2 क्यों है मुश्किल? जनता एक्सपेरिमेंट इस वजह से सफल हुआ था कि ज्यादातर विपक्षी दल जोश के साथ एक छतरी के नीचे खड़े थे। आज के संदर्भ में उसी तरह की प्रभावशाली विपक्षी एकजुटता वो भी कांग्रेस के बिना मुमकिन नहीं दिखता। इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस अबतक के अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। लेकिन उसके इस बुरे दौर में भी वह देश के हर 5 में से एक वोटर की पसंद है। 2019 के लोकसभा चुनाव में देश के 19.46 प्रतिशत वोटर उसके साथ थे। तकरीबन 12 करोड़ वोटरों का भरोसा। 2014 में भी उसका वोट शेयर 19.3 प्रतिशत था। ये आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस को पूरी तरह नजरअंदाज कर कोई भी विपक्षी मोर्चा नरेंद्र मोदी-अमित शाह की बीजेपी को तबतक टक्कर नहीं दे सकती जबतक कि कोई तेज सत्ता-विरोधी लहर न हो और इस तरह की लहर फिलहाल तो कहीं नजर नहीं आती। क्या कांग्रेस को नजरअंदाज करना इतना आसान है? देश की सबसे पुरानी पार्टी हमेशा से राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में रही है। या तो वह केंद्र की सत्ता में रही है या फिर मुख्य विपक्ष की भूमिका में। अगर कभी इन दोनों भूमिकाओं में नहीं रही तो सरकारें उसी के बाहरी समर्थन की बैसाखी से चली हैं। यह विडंबना रही है कि कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वाली पार्टियों ने बाद में कांग्रेस के सहयोग से ही सरकारें बनाईं या फिर कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार में शामिल हुईं। चौधरी चरण सिंह से लेकर एचडी देवगौड़ा, आईके गुजराल सरकार तक कांग्रेस की बैसाखी पर टिकी थीं। मनमोहन सिंह की अगुआई में यूपीए-1 और यूपीए-2 की सरकार में तकरीबन वे सभी पार्टियां शामिल थीं जो कभी गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी राजनीति का दम भरा करती थीं।
Source navbharattimes

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