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सरकार चलाने की मजबूरी, ममता के पाले में खड़े होकर कांग्रेस से बैर नहीं लेंगे शिवसेना और NCP

इन दिनों राष्ट्रीय राजनीति में मोदी के मुकाबले विपक्ष को गोलबंद करने के इरादे से निकलीं ममता बनर्जी को महाराष्ट्र से उस तरह का समर्थन नहीं मिला, जिसकी उन्होंने उम्मीद लगा रखी थी। वहां उनकी एनसीपी और शिवसेना के नेताओं से मुलाकात हुई। शिवसेना ने तो खुलकर कह दिया कि कांग्रेस के बगैर बीजेपी के खिलाफ कोई भी विपक्षी गठबंधन बीजेपी को ही फायदा पहुंचाने वाला होगा। कहा जा रहा है कि विपक्ष को गोलबंद करने कोशिश में ममता बनर्जी अगर कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा नहीं खोले हुए होतीं, तो शायद उन्हें समर्थन मिल सकता था।

महाराष्‍ट्र में शिवेसना और एनसीपी, कांग्रेस के साथ गठबंधन करके सरकार में हैं। अगर दोनों दल ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के पाले में खड़े दिखते हैं तो यह सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) को स्‍वीकार नहीं होगा।


महाराष्‍ट्र में सरकार चलाने की मजबूरी, ममता के पाले में खड़े होकर कांग्रेस से बैर नहीं चाहते शिवसेना और NCP

इन दिनों राष्ट्रीय राजनीति में मोदी के मुकाबले विपक्ष को गोलबंद करने के इरादे से निकलीं ममता बनर्जी को महाराष्ट्र से उस तरह का समर्थन नहीं मिला, जिसकी उन्होंने उम्मीद लगा रखी थी। वहां उनकी एनसीपी और शिवसेना के नेताओं से मुलाकात हुई। शिवसेना ने तो खुलकर कह दिया कि कांग्रेस के बगैर बीजेपी के खिलाफ कोई भी विपक्षी गठबंधन बीजेपी को ही फायदा पहुंचाने वाला होगा। कहा जा रहा है कि विपक्ष को गोलबंद करने कोशिश में ममता बनर्जी अगर कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा नहीं खोले हुए होतीं, तो शायद उन्हें समर्थन मिल सकता था।



महाराष्‍ट्र में ममता को क्‍यों नहीं मिला साथ
महाराष्‍ट्र में ममता को क्‍यों नहीं मिला साथ

कांग्रेस के खिलाफ इन दिनों ममता बनर्जी ने जिस तरह से हल्ला बोल रखा है, उसमें एनसीपी और शिवसेना किसी भी तरह टीएमसी के साथ खड़ी होते नहीं दिखना चाहेंगी। वजह यह है कि महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार चलाए रखने के लिए कांग्रेस का समर्थन हर हाल में चाहिए। कांग्रेस की समर्थन वापसी की स्थिति में सरकार नहीं चल सकती।

शिवसेना हो या एनसीपी, कांग्रेस के साथ रिश्ते खराब कर राज्य में चल रही गठबंधन सरकार के लिए कोई परेशानी नहीं खड़ी करना चाहेगी। दोनों को मालूम है कि उनके टीएमसी पाले में खड़े होने को कांग्रेस किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करेगी।

टीएमसी का महाराष्ट्र में ऐसा कोई वजूद भी नहीं है जिसके लिए कांग्रेस से रिश्ते बिगाड़ने का जोखिम लिया जाए। खासकर तब जब लोकसभा चुनावों में दो साल से ज्यादा का समय बाकी हो और यह भी तय न हो कि अन्य राज्यों के क्षेत्रीय दलों से ममता को कितना समर्थन मिलेगा।



प्रचार से दूर रहेंगे त्रिवेंद्र!
प्रचार से दूर रहेंगे त्रिवेंद्र!

उत्तराखंड में धामी सरकार ने पिछले दिनों देवस्थानम बोर्ड को भंग करने का फैसला लेकर भले ही मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण की वजह से पुरोहितों में पनपे गुस्से को खत्म करने की कोशिश की हो, लेकिन चुनाव से ठीक पहले पार्टी के अंदर खींचतान बढ़ गई है। एक-एक कर अपनी सरकार के कई फैसले बदले जाने से पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत की नाराजगी स्वाभाविक है। राजनीतिक गलियारों में तो यह भी कहा जा रहा है कि जिस तरह से त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के फैसले बदले गए हैं, उससे यह लगता है कि पार्टी के अंदर उनके लिए स्पेस खत्म हो गया है।

बीजेपी लीडरशिप राज्य में नए नेतृत्व के साथ ही आगे बढ़ना चाहती है। वैसे इस तरह की भी चर्चा सुनने को मिल रही है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत ने खुद को बीजेपी के चुनाव प्रचार से अलग कर लिया है। वह अपने कई नजदीकी लोगों से यह कहते सुने गए हैं कि जब नई सरकार हमारे सारे फैसलों को गलत साबित करने पर ही तुली है तो हमारे पास चुनाव के दौरान जनता को अपनी उपलब्धियां बताने के लिए होगा ही क्या?

यह देखना दिलचस्प होगा कि चुनाव तक उनकी नाराजगी खत्म होती है या नहीं, लेकिन पिछले दिनों हरीश रावत के साथ हुई उनकी मुलाकात भी कई तरह की संभावनाओं के द्वार खोले हुए हैं। हालांकि दोनों तरफ से कहा जा चुका है कि उस मुलाकात का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं हैं लेकिन ऐसी मुलाकातें अक्सर बड़े राजनीतिक उलटफेर का सबब बनती हैं। कांग्रेस सत्तारूढ़ बीजेपी के अंदर खेमेबाजी का पूरा फायदा उठाना चाहती है। उसके कई नेताओं के बयान भी आ चुके हैं कि चुनाव तक बीजेपी के कई नेता कांग्रेस में आ सकते हैं।



क्या हैं हार्दिक के विकल्प
क्या हैं हार्दिक के विकल्प

गुजरात कांग्रेस अध्यक्ष बनने की रेस में हार्दिक पटेल भी शामिल थे, लेकिन ऐन वक्त पर उन्हें पिछड़ना पड़ा। सोनिया गांधी ने जगदीश ठाकोर को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर नियुक्ति दे दी। वैसे तो गांधी परिवार को हार्दिक पटेल के नाम पर कोई एतराज नहीं था। लेकिन कहा जाता है कि राज्य इकाई में हार्दिक पटेल के नाम पर एका नहीं बन पा रहा था और उनके खिलाफ विरोध के स्वर सुनाई पड़ रहे थे। हार्दिक पटेल की तुलना में जगदीश ठाकोर के नाम पर आम सहमति दिखी। कांग्रेस लीडरशिप को इस बात का डर सताने लगा था कि हार्दिक की नियुक्ति पर कहीं नया मोर्चा न खुल जाए।

पंजाब में पहले से ही झंझावात झेल रहे नेतृत्व को एक अन्य राज्य से नई मुश्किल स्वीकार्य नहीं थी। लेकिन जगदीश ठाकोर को अध्यक्ष बना देने से सब कुछ दुरुस्त रहेगा, यह कहना भी मुश्किल है। हार्दिक पटेल को लेकर कहा जा रहा है कि वह पार्टी के अंदर अपने आपको सहज नहीं पा रहे हैं। पार्टी के पुराने नेताओं के साथ उनकी कतई नहीं बन रही है। कई बार वह इसका इजहार भी कर चुके हैं। फिर भी वह इस उम्मीद में एडजस्ट करके चल रहे थे कि उन्हें प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जा सकता है।

अब जब उनकी यह उम्मीद भी खत्म हो गई है तो वह हर तरह का फैसला लेने के लिए स्वतंत्र हैं। इसी वजह से कहा जा रहा है कि आने वाले दिनों में हार्दिक पटेल राज्य में कांग्रेस की राजनीति गरमा सकते हैं। जगदीश ठाकोर के अध्यक्ष बन जाने के बाद राज्य स्तर पर हार्दिक पटेल के पास करने को कुछ बचा नहीं है।



ब्राह्मण चेहरे की लड़ाई
ब्राह्मण चेहरे की लड़ाई

यूपी के कानून मंत्री बृजेश पाठक इस वक्त इसलिए चर्चा में हैं कि राज्य में चल रही ‘ब्राह्मण फेस’ की लड़ाई में उनका मुकाबला कभी उनके ‘गुरु’ कहे जाने वाले बीएसपी के सतीश मिश्रा से हो रहा है। दरअसल 2007 के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर जब बीएसपी ब्राह्मण-दलित गठजोड़ के जरिए नई सोशल इंजीनियरिंग की परिभाषा गढ़ रही थी, तो उसने युवा चेहरे के रूप में बृजेश पाठक को आगे किया था। बृजेश पाठक दो बार बीएसपी से सांसद हुए थे। ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा’ वाला नारा भी उन्हीं का गढ़ा हुआ था। लेकिन 2017 के चुनाव के वक्त उन्होंने वाया अमित शाह बीजेपी का साथ पकड़ लिया।

लखनऊ से विधायक हुए और योगी सरकार में उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया गया। अब 2022 के चुनाव के लिए यूपी में ब्राह्मण फैक्टर खासा अहम हो गया है। बीएसपी के लिए सतीश मिश्र और उनके पूरे परिवार ने मोर्चा संभाल रखा है तो बृजेश पाठक के सामने ब्राह्मणों को बीजेपी के पाले में बनाए रखने की चुनौती है। बीएसपी के अब तक जिन-जिन जिलों में ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं, बृजेश पाठक की सभाएं उन जिलों में लग रही हैं। यूपी के लोगों का अटल बिहारी वाजपेयी के साथ भावनात्मक लगाव है। इसके मद्देनजर उन्होंने अटल फाउंडेशन का भी गठन किया है। अब इसके जरिए भी अलग-अलग जगहों पर कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं।

सतीश मिश्र की पत्नी ब्राह्मण महिलाओं के सम्मेलन आयोजित कर रही हैं तो बृजेश पाठक की पत्नी भी महिला सम्मेलन शुरू करने जा रही हैं। बृजेश पाठक उन ब्राह्मण परिवारों से व्यक्तिगत रूप से मुलाकात का सिलसिला भी शुरू कर चुके हैं, जिनके उत्पीड़न का मुद्दा विपक्ष उठाए हुए है। इन तमाम कोशिशों का बीजेपी को चुनाव में कितना फायदा होता है यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन बृजेश पाठक खुद को राज्य में बड़े ब्राह्मण नेता के रूप में स्थापित करने का मौका अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते।



Source navbharattimes

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