DIGITELNEWS पर पढ़ें हिंदी समाचार देश और दुनिया से,जाने व्यापार,बॉलीवुड समाचार ,खेल,टेक खबरेंऔर राजनीति के हर अपडेट

 

फ़र्ज़ी बहसों के किरदार और असल मुद्दों से दूर ले जाते भोंपू

पूरी दुनिया कोरोना से जूझ रही है। हमारे देश में यह समस्या दिनों-दिन बढ़ रही है। दुनिया में रोज पौने दो लाख नए संक्रमित आ रहे हैं। इनमें से एक लाख अकेले भारत में। विश्वभर में रोज सवा तीन हज़ार लोग मर रहे हैं, इनमें 11-12 सौ अकेले भारत में। लेकिन न्यूज चैनलों को इससे ज्यादा सरोकार नहीं है।

वे कई दिनों से लगातार, बिना सांस रोके, सिर्फ सुशांत सिंह राजपूत, रिया चक्रवर्ती, कंगना और राउत दिखा रहे हैं... बस। आख़िर हम कहां जा रहे हैं? कहां जाना चाहते हैं? व्यावसायिकता पहले भी थी लेकिन ऐसी नहीं कि टीआरपी की होड़ के तेज बहाव में नैतिकता, मर्यादा, सहनशीलता, सब कुछ तिनके की तरह बहता चला जाए।

भाषा तो मर्यादा या हदों के उस पार से शुरू हो रही है। एक के बाद एक बयान आते हैं और इन बयानों के चक्रव्यूह में अलग अलग पार्टियों के नेताओं को उलझाया जाता है। ये नेता भाषा की तमाम मर्यादाएं लांघकर अपने आकाओं को खुश करने के लिए कुछ तो भी बोलते हैं। ए, कमिश्नर! सुन ले!, ए उद्धव! समझ ले! जैसे फूहड़ संवादों का चलन बढ़ता है।

जहां तक संवाद की बात है, उसकी जगह अब चीखने-चिल्लाने वाली बहस ने ले ली है। बहस भी कैसे होती है- एक पक्ष का प्रतिनिधि, दूसरा विपक्ष का। तीसरा विशेषज्ञ, इन दोनों को धमकाने वाला ... और चौथा एंकर, इन तीनों को उकसाने वाला। उकसाने, भड़काने, तैश में आने के अलावा इन बहसों से आम दर्शक के लिए कुछ भी निकलता नहीं है।

हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि देश का कोई भी व्यक्ति या तो पक्ष में होना चाहिए या विपक्ष में। निष्पक्षता तो जैसे अपराध हो गई है। कुछ पक्ष तो निष्पक्षता को देशद्रोह भी कहने या मानने लगे हैं। परिवार, समाज, संस्कृति, मूल्य, सब के सब झूठी बहसों और फ़र्ज़ी मुद्दों की चकाचौंध में खो गए हैं।

यही वजह है कि कोई भी व्यक्ति चाहे वो बॉलीवुड का हो, या किसी और क्षेत्र का, इन भटकाने वाले मुद्दों पर बात तक नहीं करना चाहता। सरकारें, किसी को भी ठिकाने लगाने में अपनी बहादुरी समझती हैं, जैसे वे विरोध के किसी भी स्वर को कुचलने के लिए ही बनी हों। वे दिन लद गए जब किसी दल की सरकार दूसरे दल के नेता को प्रतिनिधि बनाकर यूएन भेजती थी।

एक बार अटलजी लोकसभा चुनाव हार गए तो इंदिरा गांधी ने कहा था- अटलजी के बिना विपक्ष सूना-सूना लगता है। कांग्रेस के कई नेता क़हते रहे कि अटलजी देश के बेस्ट लीडर हैं, लेकिन वे ग़लत पार्टी में हैं। कुल मिलाकर बात यह है कि विरोध का स्वर और तंज भी मीठा और गुदगुदाने वाला हुआ करता था। अब वह मिठास कहीं खो गई है। वह हंसी कहीं तिरोहित हो गई है।

बचा है तो सिर्फ अट्टहास... हल्कापन... और हर समय किसी को भी मारने- पीटने पर उतारू सरकारें... सबसे बड़ा सवाल यही है कि ‘देश इनका क्या करे’? वे आमजन क्या करें, जिन्हें असल मुद्दों से भटकाया जा रहा है? आख़िर सरकारों और ज़िम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को कोरोना से लड़ने और अर्थ व्यवस्था को सुधारने में अपना शत प्रतिशत लगाना चाहिए या इस तरह के अलग मुद्दों में?

कुल मिलाकर, आम आदमी को मुद्दों से भटकाने का सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो इसके तमाम कारक अपनी प्रासंगिकता खो देंगे। नेता भी। पार्टियां भी और कुछ न्यूज चैनल भी।



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
नवनीत गुर्जर, नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर
Source http://bhaskar.com

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ