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भारतीय डॉक्टर बोलीं- पूरी रात हाथ-पैर गंवा चुके सैनिक आते हैं, वो युद्ध में लौटने की जिद करते हैं

वो 18-20 साल का जवान था। उसका शरीर 40 फीसदी से अधिक जला हुआ था। हमने उसे बचाने का भरसक प्रयास किया, लेकिन सुबह चार बजे उसने दम तोड़ दिया। एक और जवान की जिंदगी जंग में चली गई। बहुत अफसोस होता है इतनी कम उम्र के लोगों को इस तरह जाते देखते हुए।'

उपासना दत्त भारतीय मूल की मेडिकल स्टूडेंट हैं और इस समय आर्मीनिया के येरेवान के अस्पताल में तैनात हैं। उनके अस्पताल में अब सिर्फ युद्ध में घायल लोग ही आ रहे हैं। वो कहती हैं, 'यहां चौबीसों घंटे घायलों को लाया जा रहा है। बहुत से युवा सैनिक यहां लाए जा रहे हैं, जिन्होंने या तो अपनी आंखें गंवा दी हैं या कोई अंग। कई बहुत बुरी तरह से जले हुए होते हैं।'

27 सितंबर को आर्मीनिया-अजरबैजान के बीच विवादित क्षेत्र नागार्नो काराबाख पर नियंत्रण को लेकर छिड़ी जंग में मरने वालों की तादाद अब हजारों में है। तीन बार संघर्ष विराम हुआ है और नाकाम रहा है। आर्मीनिया के अस्पताल में इन दिनों जिंदगी कैसी है, यह बताते हुए उपासना कहती हैं, 'जब मैंने अस्पताल में काम शुरू किया था, तब मैंने नहीं सोचा था कि मैं इस देश में युद्ध की गवाह बनूंगी। यह एक सामान्य अस्पताल था, जो बाद में कोविड अस्पताल बना दिया गया था। फिर जंग छिड़ गई और एक ही रात में इसे युद्ध अस्पताल बना दिया गया।'

उपासना दिन भर अस्पताल में काम करने के बाद स्वयं सहायता समूहों के साथ काम करती हैं और सैनिकों के लिए सामान तैयार करती हैं।

उपासना बताती हैं, 'पहले सर्जरी दो-तीन घंटे चलती थी। कोई बहुत लंबा ऑपरेशन होता था तो छह घंटे तक चलता था। अब हमारे पास ऐसे घायल आ रहे हैं जिनकी सर्जरी आठ-आठ घंटे चलती हैं। कई बार रात के एक-दो बजे तक ऑपरेशन चलते रहते हैं। डॉक्टरों के पास पानी पीने तक का समय नहीं होता। ये डॉक्टरों के लिए, नर्सों के लिए और वहां मौजूद लोगों के लिए बहुत थकाने वाला होता है।

युद्ध में घायल सैनिक किस मनोस्थिति में होते हैं? उपासना कहती हैं, 'कुछ ऐसे सैनिक होते हैं, जिनकी एक आंख जा चुकी होती है, लेकिन वो ठीक होकर फिर से युद्ध के मैदान में लौटने की बात करते हैं। कई घायल सैनिक एक हाथ या पैर गंवा चुके होते हैं, लेकिन फिर भी वो यही कहते हैं कि ठीक होते ही उन्हें फिर से लड़ाई में जाना है।'

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हर कोई है युद्ध से प्रभावित

क्या युद्ध की शुरुआत के मुकाबले अब हालात कुछ बेहतर हुए हैं? उपासना कहती हैं, 'एक महीने बाद अब हालात और बदतर हो गए हैं। हर बीतते दिन के साथ हालात और खराब हो रहे हैं। जिनके परिजन या फिर रिश्तेदार जंग में लड़ रहे हैं, वो युद्ध से सीधे तौर पर प्रभावित हुए हैं और कहीं ना कहीं अवसाद में हैं। इसका असर हम पर भी होता है, क्योंकि हम उनसे मिलते हैं और उन्हें देखते हैं।'

येरेवान शहर में हर तरफ युद्ध में जान गंवाने वाले सैनिकों की तस्वीरें लगी हैं। उन सैनिकों की तस्वीरें भी हैं, जो युद्ध के मैदान में लड़ रहे हैं। उपासना कहती हैं, ' इन हंसती हुई तस्वीरों के पीछे युद्ध की त्रासदी छुपी है। हम जानते हैं कि ये सैनिक और इनके परिजन किन हालातों से गुजर रहे हैं।' शहर में लगे पोस्टरों पर उन सैनिकों के नाम भी लिखें हैं, जिन्होंने जान गंवा दी है। नाम के आगे उनकी उम्र लिखी होती है। अधिकतर की उम्र 18-20 साल है।

उपासना बताती हैं कि बहुत से युवा सैनिक यहां लाए जा रहे हैं, जिन्होंने या तो अपनी आंखें गंवा दी हैं या शरीर का कोई अंग।

बच्चों ने अपने खिलौने बेच दिए

येरेवान की गलियों में आर्तसाख से आए लोगों ने पारंपरिक रोटियों की दुकानें सजाई हैं। हरी सब्जियों से बनने वाली इन रोटियों को बेचकर वो युद्ध में भेजने के लिए पैसा जुटा रहे हैं। बच्चे अपने खिलौने बेचकर पैसे जुटा रहे हैं। गलियों में कुछ बच्चे ऐसे भी हैं, जो पेंटिंग करके युद्ध में लड़ रहे सैनिकों के लिए पैसे जुटा रहे हैं। शहर के इर्द-गिर्द ऐसे कैंप हैं, जहां जाकर लोग सैनिकों के लिए खाना बना सकते हैं। लोग बढ़-चढ़कर इनमें हिस्सा ले रहे हैं।

उपासना भी एक समूह का हिस्सा हैं, जो सैनिकों को भेजने के लिए बैंडेज तैयार करता है। उपासना दिन भर अस्पताल में काम करने के बाद स्वयं सहायता समूहों के साथ काम करती हैं और सैनिकों के लिए सामान तैयार करती हैं।

'शहर के कई अलग-अलग इलाकों में एनजीओ की ओर से बड़े-बड़े डिब्बे रखे गए हैं, जिनमें लोग अपने कपड़े, दवाइयां और बहुत सी चीजें दान कर रहे हैं। जो लोग सीमा पर अपने घर गंवा रहे हैं, उनकी मदद के लिए भी पैसे और सामान इकट्ठा किया जा रहा है।'

यहां के बच्चे अपने खिलौने बेचकर युद्ध में सैनिकों की मदद के लिए पैसे जुटा रहे हैं।

उपासना बताती हैं, 'खबरों में और सोशल मीडिया पर हमें हर दिन मारे जाने वाले आर्मीनियाई सैनिकों की संख्या पता चलती है। इनमें से अधिकतर की उम्र 18-20 साल होती है। कुछ 22-25 साल के भी होते हैं। सीमा पर बहुत से डॉक्टर भी मारे जा रहे हैं। ये लोग घायल सैनिकों का इलाज करने अपनी मर्जी से लड़ाई के मैदान में पहुंचे हैं। आर्मीनिया में बहुत लोगों ने अपनी मर्जी से अपने देश के लिए हथियार उठाए हैं।'

महिलाओं के लिए युद्ध कितना मुश्किल

वो कहती हैं, 'जब युद्ध की घोषणा होती है तो आमतौर पर महिलाएं बच्चों के साथ अंडरग्राउंड हो जाती हैं, लेकिन यहां आर्मीनिया में महिलाएं हर मोर्चे पर लड़ रही हैं। वो अपनी मर्जी से सीमा पर जा रही हैं। यहां की हजारों महिलाओं ने हथियार उठाए हैं। प्रधानमंत्री की पत्नी ने ट्रेनिंग ली है और वो भी युद्ध के मैदान में गई हैं।' जैसे-जैसे युद्ध आगे बढ़ रहा है। आम लोगों में डर भी बढ़ रहा है। उपासना कहती हैं, 'आर्मीनिया में हर किसी को इस बात का भी डर है कि यदि युद्ध को अभी नहीं रोका गया तो दूसरा नरसंहार भी हो सकता है।'

वो कहती हैं,' मैं युद्ध से बिलकुल भी डरी हुई नहीं हूं। मुझे बस इस बात का डर है कि भारत में मेरे परिजन हर सेकंड मेरी सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। इसके अलावा मैं बस इतना ही कहूंगी कि आर्मीनिया में औरतें आदमियों से ज्यादा मजबूत हैं। मुझे भरोसा है कि मैं मजबूत बनी रहूंगी और आर्मीनिया और सच की जीत को देखूंगी।'



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We have injured people whose surgeries last for eight-eight hours, many times operations up to two in the night.
Source http://bhaskar.com

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