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सभ्‍यताओं का संघर्ष क्‍या है? जनरल रावत की जिस बात से जयशंकर ने किया किनारा, उसके मायने समझ‍िए

नई दिल्‍ली चीफ ऑफ डिफेंस स्‍टाफ (CDS) जनरल बिपिन रावत ने कुछ दिन पहले एक बात कही। सैमुअल हटिंगटन की किताब 'क्लैश ऑफ सिविलाइजेशंस' का जिक्र कर उन्‍होंने चीनी और इस्‍लामिक सभ्‍यता के गठजोड़ की आशंका जताई। रावत ने कहा कि ईरान और तुर्की से नजदीकी बढ़ाने के बाद चीन तेजी से अफगानिस्तान में अपने पैर मजबूत कर रहा है। संभव है कि वह बहुत जल्द अफगानिस्तान में दखल देना भी शुरू कर दे। जनरल रावत की इस बात से विदेश मंत्री एस जयशंकर ने पल्‍ला झाड़ लिया है। जयशंकर कहते हैं कि भारत ने 'सभ्यताओं के टकराव के सिद्धांत' का कभी भी समर्थन नहीं किया। मगर यह सिद्धांत आखिर है क्‍या और तालिबान के संदर्भ में इसका जिक्र क्‍यों हो रहा है? क्‍या है 'क्लैश ऑफ सिविलाइजेशंस'?'क्लैश ऑफ सिविलाइजेशंस' अमेरिकी पॉलिटिकल साइंटिस्‍ट सैमुअल पी हटिंगटन की एक थीसिस है। उन्‍होंने 90 के दशक में यह सिद्धांत दुनिया के सामने रखा। हटिंगटन का कहना था कि कोल्‍ड-वार के बाद के समय में लोगों की सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहचान ही संघर्षों का मुख्य कारण होगी। हटिंगटन की भविष्‍यवाणी कुछ हद तक सच साबित होती दिखती है। अमेरिका ने इसी सिद्धांत का हवाला देकर शुरू किए हमले9/11 के बाद तत्‍कालीन अमेरिकी राष्‍ट्रपति जॉर्ज बुश ने तालिबान के खिलाफ जंग शुरू की। उस दौर के नवरूढ़िवादियों ने हटिंगटन की थीसिस को आधार बनाकर दुनियाभर में 'प्री-एम्पिटव' हमले करना शुरू किए। इराक में सद्दाम हुसैन को अपदस्‍थ करना इनमें सबसे प्रमुख था। समस्‍या यह थी कि 'सभ्‍यतागत दुश्‍मन' को खत्‍म करने के लिए 'सत्‍ता परिवर्तन' के अमेरिकी सिद्धांत को वैधता नहीं मिली। पश्चिम के खिलाफ मुस्लिम देश एकजुट नहीं थे। 9/11 हमलों के बाद अधिकतर मुस्लिम देशों ने तालिबान और अल कायदा की भर्त्‍सना की। पश्चिम में भी अमेरिका के करीबियों से इतर, बाकी देश इस बात पर रजामंद नहीं थे कि कोई इस्‍लामिक खतरा है भी। पश्चिम भूला, मगर इस्‍लामिक देशों में पनपता रहा यह सिद्धांतबुश प्रशासन की करतूतों के खिलाफ खूब रिपोर्ट्स छपीं। इराक पर आक्रमण करने का फैसला एक झूठ पर आधारित था, दस्‍तावेज यह साबित करते हैं। अमेरिका की इस कवायद को पूरी दुनिया पर पकड़ मजबूत करने की दिशा में उठाए गए कदम की तरह देखा गया। धीमे-धीमे सभ्‍यताओं के संघर्ष का सिद्धांत दरकिनार होता चला गया, मगर इस्‍लामिक दुनिया में नहीं। इराक में अमेरिका की हरकतों ने लगभग खत्‍म हो चुके तालिबान और अल कायदा को प्रॉपेगेंडा का सामान दे दिया। अपने ठिकानों से ओसामा बिन लादेन टेप जारी करता और मुस्लिमों से कहता कि आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की लड़ाई मुस्लिमों को गुलाम बनाने और उन्‍हें लूटने का एक प्रॉजेक्‍ट है। लादेन के इन संदेशों को शुरू में हंसी में टाल दिया गया था, मगर जल्‍द ही उसे देखने-सुनने वालों की संख्‍या बढ़ती चली गई। अलग यह था कि लादेन से प्रेरित होकर बने नए संगठन और कट्टर थे और इस्‍लामिक हुकूमत की स्‍थापना करना चाहते थे। पश्चिमी देश आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पिछड़ने लगे। मिडल ईस्‍ट और अफ्रीकी देशों में कई इस्‍लामिक समूहों ने सत्‍ता हथियाने की कोशिशें कीं। जहां वे सत्‍ता स्‍थापित नहीं कर सके, वहां सरकार में साझेदारी कर ली। वेस्‍ट और इस्‍लामिक दुनिया के बीच का संघर्षहमारे सहयोगी चैनल 'टाइम्‍स नाउ' एडिटर-इन-चीफ राहुल शिवशंकर मानते हैं कि एक नए रूप में सभ्‍यताओं का संघर्ष होने जा रहा है। 'टाइम्‍स ऑफ इंडिया' के लिए अपने लेख में वह कहते हैं कि दो दशक बाद तालिबान की वापसी पश्चिम के प्रति नफरत का नतीजा है। शिवशंकर के अनुसार, इस्‍लामिक दुनिया ने तालिबान की सोच को मान्‍यता दे दी है। ऐसे में हटिंगटन की थीसिस रीलोड होकर हमारे सामने आ रही है। उनके मुताबिक, प्रगतिशीलतावादी मूल्‍यों को नकार कर मध्‍य-युगीन इस्‍लामिक रूढ़‍ियों को स्‍वीकार कर सांस्‍कृतिक दरारों को और चौड़ा किया जा रहा है। इसके जवाब में यूरोप के कई लोकतांत्रिक देशों ने बहुसंस्कृतिवाद के चलन से दूरी बनानी शुरू कर दी है। शिवशंकर का पूरा लेख अंग्रेजी में पढ़ सकते हैं।
Source navbharattimes

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