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1971 : इंदिरा गांधी के आगे फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ को नीचा दिखाने की कोशिश ठीक नहीं

नई दिल्ली हाल में दो ऐसी किताबें आईं हैं जिनमें 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध की चर्चा है। बात इसकी छिड़ेगी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और तब के सेना प्रमुख जनरल सैम मानेकशॉ (बाद में फील्ड मार्शल बने) के बिना तो अधूरी ही रहेगी। क्या इन दोनों में से किसी के भी किरदार को जानबूझकर छोटा या बड़ा दिखाने की कोशिश ठीक कही जाएगी? एयर वाइस मार्शल (रिटायर्ड) अर्जुन सुब्रमण्यन ने लेख के जरिए दोनों ही किताबों पर फील्ड मार्शल मानेकशॉ को नीचा दिखाने की कोशिश का आरोप लगाया है। इनमें से एक किताब एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने लिखी है तो दूसरी किताब एक पूर्व राजनयिक ने। बात हो रही है 'इंटरविन्ड लाइव्स: पीएन हक्सर ऐंड इंदिरा गांधी' और 'इंडिया ऐंड द बांग्लादेश लिबरेशन वॉर: द डिफिनिटिव स्टोरी' की। एक किताब इंदिरा गांधी पर है तो दूसरी का शीर्षक ही भारत और बांग्लादेश मुक्ति संग्राम है। पहली के लेखक हैं पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के सीनियर नेता जयराम रमेश। तो दूसरी को लिखी है चन्द्रशेखर दासगुप्ता ने। अर्जुन सुब्रमण्यम ने हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखे अपने लेख में मानेकशॉ की भूमिका को कमतर आंके जाने के खिलाफ आगाह किया है। इंदिरा गांधी अप्रैल-मई 1971 में ही पूर्वी पाकिस्तान में सैन्य अभियान शुरू करना चाहती थीं लेकिन आर्मी चीफ मानेकशॉ की सलाह पर उन्होंने इसमें देरी की। सुब्रमण्यम के मुताबिक दोनों ही किताबों में इस बड़े पैमाने पर स्वीकृत नैरेटिव को चुनौती दी गई है। सैम मानेकशॉ ने इंदिरा गांधी को दो टूक कहा था कि अगर हम जल्दबाजी में सैन्य अभियान लॉन्च करते हैं तो मॉनसून तक ही हमारी स्थिति डंवाडोल हो सकती है। सुब्रमण्यम ने लिखा है कि कई सैन्य इतिहासकारों और सेना के पूर्व अफसरों की किताबों में इस तथ्य को रखा गया है। उन्होंने लिखा है कि हर एक सैन्य इतिहासकार ने 1971 की शानदार जीत में इंदिरा गांधी की निर्णायक भूमिका को मान्यता दी है लेकिन यह भी सच है कि यह किसी एक के प्रयासों का नतीजा नहीं था। भारत ने अप्रैल-मई के बजाय 3 दिसंबर 1971 को पूर्वी पाकिस्तान में अपना सैन्य अभियान शुरू किया। 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना के समर्पण और बांग्लादेश की मुक्ति के साथ यह सैन्य अभियान अपने मकसद में पूरा हुआ। सुब्रमण्यम ने लिखा है कि जयराम रमेश और चन्द्रशेखर दासगुप्ता ने किताब में पीएन हक्सर और पीएन धर के संस्मरणों का इस्तेमाल किया है। हक्सर और धर दोनों ही इंदिरा गांधी के करीबी और सलाहकार थे। 1971 की जंग में मिली शानदार जीत को इंदिरा गांधी कूटनीतिक तौर पर नहीं भुना पाई। जंग के मैदान में जो हासिल हुआ उसे 1972 में शिमला में बातचीत की मेज पर एक तरह से गंवा दिया गया। इससे इंदिरा की छवि को नुकसान न पहुंचे, इसलिए हक्सर और धर दोनों ने यह स्थापित करने के लिए खूब मेहनत की कि 1971 का सैन्य अभियान सिर्फ और सिर्फ इंदिरा की कामयाबी थी। सुब्रमण्यन ने लिखा है कि हक्सर और धर के संस्मरणों के प्रभाव से दोनों ही किताबों में मानेकशॉ की भूमिका को कमतर आंका गया है। अर्जुन सुब्रमण्यम ने लिखा है कि दासगुप्ता ने अपनी किताब में यह कहने की कोशिश की है कि मानेकशॉ में जियोपॉलिटिक्स की समझ की कमी थी। यह उसी पूर्वाग्रह का नतीजा है कि 'जनरलों को जंग लड़ने के अलावा कुछ भी नहीं आता।' इसी तरह, जयराम रमेश ने आर्मी अफसरों की लिखी किताबों में झांकने तक की कोशिश नहीं की। सुब्रमण्यम ने कहा है कि इंडियन आर्मी ने महत्वपूर्ण चर्चाओं को मिनट्स में रिकॉर्ड नहीं किया, जबकि ऐसा होना चाहिए था।
Source navbharattimes

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