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नगालैंड का वह टेनिस कोर्ट, जिस पर जीता और हारा गया था दूसरा विश्व युद्ध

नई दिल्ली/कोहिमा चेरी के उस नन्हे से पौधे से कोंपलें फूट रही हैं। उस पर लगी तख्ती और सुरक्षा घेरा बताता है कि वह कितना खास है। कोहिमा की गैरिसन पहाड़ी में विक्ट्री मेमोरियल के ठीक बाईं तरफ उस जगह पर वह संभवत: अपनी पीढ़ी से तीसरा है। अप्रैल 1944 में अंग्रेजों और जापानियों की भीषण जंग में उसके 'दादा' की नियति उन बदनसीब हिंदुस्तानी सैनिकों की तरह ही रही। सर्दियों मं गुलाबी फूलों से भरा रहने वाला वह विशाल पेड़ बारूद की गंध उमें उड़ गया। टेनिस कोर्ट, जिस पर लड़ा गया द्वितीय विश्व युद्ध इस पेड़ से कुछ आगे नजर जमीन पर पत्थर से खिंचीं कुछ जानी-पहचानी सी लाइनों पर ठहरती है। लेफ्ट सर्विस कोर्ट बॉक्स, राइट सर्विस बॉक्स, सर्विस बॉक्स, बेसलाइन...। यह लॉन टेनिस का कोर्ट है। लॉन टेनिस के कोर्ट का एक हिस्सा 'नो मैन्स लैंड' भी कहा जाता है। यह एक फौजी शब्द। क्या इत्तेफाक है। द्वितीय विश्व युद्ध में खिलाड़ी के लिए सर्विस लाइन और बैक बेसलाइन की बीच की इस आत्मघाती जगह पर एक दूसरे के खून के प्यासे जापानी और ब्रिटिश सेना के जवान खड़े थे। द्वितीय विश्व युद्ध की सबसे निर्णायक जंग टेनिस कोर्ट के इन्हीं दो छोरों के फासले पर लड़कर खत्म हुई। गैरिसल हिल के इस टेनिस कोर्ट पर कोहिमा के डेप्युटी कमिश्नर अफसरों संग खेला करते थे। पास में ही उनका बंगला था। पर अप्रैल 1944 में इस टेनिस कोर्ट में वह खेल खेला गया, जो दुनिया के इतिहास में अभी तक कभी नहीं खेला गया था। चेरी के पेड़ की आड़ से जापानियों ने मारे कई ब्रिटिश सैनिक सिमिट्री के कर्मचारी सिल्वेस्टर मार्क चेरी के उस पेड़ और टेनिस कोर्ट की कहानी सुनाते हैं। वह बताते हैं, 'तब यहां पर चेरी का एक विशाल पेड़ था। यह छोटा पौधा उसी पेड़ का हिस्सा है। चेरी के उस विशाल गाछी (पेड़) की आड़ में छिपकर जापानियों ने कई अंग्रेज सैनिकों को मारा था।' ...और आखिर में टेनिस कोर्ट में खाली हाथों से लड़ी गई जंगसिल्वेस्टर आगे बताते हैं, 'जब दोनों ओर की गोलियां खत्म हो गईं, तो ठीक इसी टेनिस कोर्ट के ऊपर सैनिकों ने हाथों से लड़ाई लड़ी।' थकान-बीमारी से लस्त-पस्त सैनिक, जो पानी की एक-एक बूंद के लिए बारिश होने पर आसमान की ओर मुंह खोलने वाले कई सैनिकों ने इस टेनिस कोर्ट पर अपनी जिंदगी की आखिरी जंग लड़ी। उनकी दास्तां इस पहाड़ी के अंदर दबी पड़ी है। आखिरकार 18 अप्रैल 1944 को कोहिमा पर जापानी घेराबंदी टूटी थी। दीमापुर और इंफाल से ब्रिटिश सेना की दूसरी डिविजन मदद के लिए कोहिमा आ पहुंची। इसके बाद जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा। विश्व युद्ध में जापान पहली बार हारा था। खेल के मैदान पर टीमों की हार-जीत के फैसले होते हैं, पर गैरिसन पहाड़ी के इस का नतीजा तय हुआ। निर्मल वर्मा के शब्दों में वह टेनिस कोर्टलेखक और उपन्यासकार निर्मल वर्मा ने अपने यात्रा वृतांत 'धुंध से उठती धुन' में इस टेनिस कोर्ट को कुछ इस तरह याद किया है, 'सुबह मैं युद्ध की सिमिट्री देखने गया था, जो एक पहाड़ी पर स्थित है। वहां से कोहिमा का विस्मयकारी दृश्य दिखाई देता है। वह पहले एक ब्रिटिश डिप्टी कमिश्नर का टेनिस कोर्ट था। दूसरी लड़ाई के दौरान, अप्रैल 1944 में यहां अंग्रेजों और जापानियों के बीच घमासान युद्ध हुआ था। अंत में जापानियों को यहीं रुक जाना पड़ा। सैकड़ों सिपाही यहां दबे पड़े हैं। उनकी कब्रें फूलों की क्यारियों की तरह बिछी हैं, जिन पर सैनिकों की उम्र अंकित है। लगभग सबकी उम्र बीस से तीस के बीच थी। हिंदुओं का श्मशान स्थल अलग है।'
Source navbharattimes

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